SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ तीर्थंकर महावीर बहुत भोजन-पानी की व्यवस्था करके एक जंगल में गये। ग्रामरहित और मार्गरहित उस जंगल में कुछ दूर जाने पर उनका जल समाप्त हो गया । पास में जल न होने के कारण तृषा से पीड़ित वे कहने लगे-'हे देवानुप्रियो ! इस ग्रामरहित जंगल में हमारे पास का पानी तो समाप्त हो गया। अतः अब इस जंगल में चारों ओर पानी की गवेषणा करनी चाहिए।' वे सभी चारों ओर पानी की गवेषणा करने गये। घूमते-फिरते वे एक ऐसे स्थल पर पहुँचे जहाँ उन्हें चार बाँबियाँ दिखलायी पड़ी। व्यापारियों ने एक बाँबी खोदा तो उन्हें स्वच्छ जल मिला। सबने जल पिया और अपने बर्तनों में भर लिया। जल मिल जाने पर उनमें से एक सुबुद्धि वणिक ने लौट चलने की सलाह दी। पर, शेष लोभी वणिकों ने अन्य बाँबियाँ खोदने के लिए आग्रह किया । दूसरी बाँबी तोड़ने पर उन्हें सोना मिला । तीसरी बाँबी तोड़ने पर मणि-रत्नों का खजाना मिला। लोभी वणिकों की तृष्णा न बुझी। उन्होंने चौथी बाँबी तोड़ी। उसमें दृष्टिविष सर्प निकला और सब के सब भस्म हो गये।' "हे आनन्द ! यह उपमा तेरे धर्माचार्य पर भी लागू होती है । तेरे धर्माचार्य को सम्पूर्ण लाभ प्राप्त हो चुकने पर भी संतोष नहीं है। के मेरे सम्बन्ध में कहते फिरते हैं 'गोशाला मेरा शिष्य है ! वह छद्मस्थ है !! वह मंखली पुत्र है !!!' तू जा अपने धर्माचार्य को सावधान कर दे अन्यथा मैं स्वयं आकर उनकी दशा दुबुद्धि वणिकों-सी करता हूँ।" दृष्टिविष सर्प प्रज्ञापना सूत्र सटीक में 'दृष्टिविष' की टीका करते हुए लिखा है १-बाशम का मत है कि यह कथा आजीवकों के शास्त्र में रही होगी और वहीं से यहाँ ऊद्धृत हुई है। -देखिये 'आजीवक', पष्ठ २१६ यह कथा कल्पसूत्र सुबोधिका-टीका सहित, पत्र ६५ में 'उपसर्ग' आश्चर्य के प्रसंग में भी आयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy