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________________ गोशाला का आगमन कर्म के पाँच लाख साठ हजार छः सौ तीन भेद अनुक्रम से क्षय करके सिद्ध हुए, मुक्त हुए यावत् अन्त किया, करते हैं और करेंगे। "अब महाकल्प का प्रमाण कहते हैं : "जैसे गंगा नदी जहाँ से निकलकर जहाँ जाकर समस्त प्रकार से समाप्तपने को प्राप्त होती है, वह गंगा ५०० योजन लम्बी, आधा योजन चौड़ी तथा ५०० धनुष ऊँची है । ऐसी "७ गंगा = १ महागंगा “७ महागंगा = १ सादीनगंगा "७ सादीनगंगा = १ मृत्युगंगा "७ मृत्युगंगा = १ लोहितगंगा "७ लोहितगंगा = १ अवंतीगंगा "७ अवंतीगंगा = १ परमावतीगंगा "इस प्रकार पूर्वापर एकत्र करने से १ लाख ७० हजार ६४९ गंगाओं के बराबर हुआ। "उस गंगा में रही हुई बालुका के दो भेद हैं -(१) सूक्ष्म बोदिकलेवररूप और ( २) बादरबोंदिकलेवररूप ।। "हम यहाँ सूक्ष्म शरीर कण की परिभाषा नहीं करते । "उक्त गंगाओं में से एक-एक कण निकालते जितने काल में वे सब क्षीण-रजरहित--निलेप व अवयवरहित हो उसे सरप्रमाणकाल कहते हैं । "ऐसे ३ लाख सरप्रमाणकाल = १ महाकल्प । "८४ लाख महाकल्प = १ महामानस अथवा मानसोत्तर । "अब सात दिव्यादिक् की प्ररूपणा करते हैं । "अनन्त संयूथ-अनन्त जीव के समुदाय-रूप निकाय से जीव च्यव करके संयूथ देवभव में एक मानस सरप्रमाण का आयुष्य प्राप्त करता है। वहाँ देवलोक में दिव्य भोगों को भोगता हुआ विचरण करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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