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तीर्थकर महावीर है । उस देवलोक का आयुष्य समाप्त करके वह गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्यपने को प्राप्त होता है।
'उसके बाद वहाँ से च्यव कर मध्यम मानससरप्रमाण आयुष्य वाले देवसंयूथ में जाता है । वहाँ दिव्य भोग भोगकर दूसरा मनुष्य भव प्राप्त करता है। ___ "इसके बाद वह मानसप्रमाण आयुष्य वाले नीचे के देवसंयूथ में देवगति को प्राप्त होता है । वहाँ से निकलकर तीसरा मनुष्य जन्म ग्रहण करता है।
"फिर वह मानसोत्तर देवसंयूथ मैं मानसोत्तर आयुष्य वाला देव होकर फिर चौथा मनुष्य जन्म ग्रहण करता है।
“उसके बाद वह मानसोत्तरसंयूथ में देव होता है, फिर पाँचवाँ मनुष्य-जन्म ग्रहण करता है।
"वह मानसोत्तरदेवसंयूथ में देवपद प्राप्त करता है और वहाँ दिव्य सुख भोग कर वह फिर मनुष्य होता है ।
"वहाँ से निकल कर ब्रह्मलोक-नामक कल्पदेवलोक में उत्पन्न होता है । वह पूर्व-पश्चिम लम्बाई वाला है और उत्तर-दक्षिण विस्तार वाला है (जिस प्रकार प्रज्ञापना-सूत्र में स्थानपद प्रकरण में कहा गया है)। उसमें पाँच अवतंसकविमान कहे गये हैं।' वह अशोकावतंसक विमान में उत्पन्न होता है।
"वहाँ १० सागरोपम तक दिव्य भोग भोगकर वहाँ से च्यवकर सातवाँ गर्भज मनुष्य उत्पन्न होता है । वहाँ ९ मास ७|| दिन व्यतीत होने के बाद सुकुमाल, भंद्र, मृदु, दर्भ की कुंडली के समान संकुचित केशवाला देवकुमार के समान बालक-रूप जन्म लेता है।
१-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, स्थान २, पत्र १०२-२ तथा १०३-१ में ब्रह्मदेवलोक का वर्णन है।
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