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________________ २३६ तीर्थकर महावीर समणस्स भगवनो महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स नमोत्थुणं -भगवान महावीर को, जो मुक्ति प्राप्त करने के कामी हैं, नमस्कार हो धम्मोवदेसग्ग धम्मायरियस्ल ब्रह्म परिवायगस्स अम्मडस्स नमोत्थु णं । -धर्म के उपदेशक ऐसे हमारे गुरु धर्माचार्य अम्बड को नमस्कार । "पहले हम लोगों ने अम्बड परिव्राजक के समीप स्थूलप्राणातिपात का यावजीव प्रत्याख्यान किया है। इसी तरह समस्त स्थूलमृषावाद का समस्त स्थूलअदत्तादान का जीवन पर्यन्त परित्याग कर दिया है, समस्त मैथुन का यावजीवन परित्याग कर दिया है। स्थूल परिग्रह का यावजीवन 'परित्याग कर दिया है। अब इस समय हम सब लोग श्रमग भगवान् महावीर के समीप पुनः समस्त प्राणातिपात का जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान करते है । इसी तरह समस्त परिग्रह आदि का जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान करते हैं। इसी तरह उन्हीं को साक्षी पूर्वक समस्त क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रिंय, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामृषा, मिथ्यादर्शनशल्य का एवं अकरणीय योग का यावजीव प्रत्याख्यान करते हैं । समस्त अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य इन चार प्रकार के आहारों का यावजीव प्रत्याख्यान करते हैं। इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ की अपेक्षा अत्यंत प्रिय स्थिरतायुक्त अपना शरीर ( पर शरीर की अपेक्षा ) अधिक प्रिय होता है । इस अपेक्षा अतिशय प्रीति का पात्र, शारीरिक कार्यों के संमत होने से संमत, बहुतों के मध्य में होने से बहुमत, विगुणता के दिखने पर भी प्रेम का स्थानभूत, जिस प्रकार भूषणों का करंडक प्रिय होता है, उसी प्रकार से प्रिय होने के कारण भाण्डकरंडक इस मेरे शरीर को शीत उष्ण, क्षुधा, पिपासा, सर्प, चोर, दंश, मच्छर, बात-पित्त-कफ संबंधी रोग, आतंक, परीषह, उपसर्ग आदि स्पर्श न करें। इस प्रकार को विचारधारा को अब चरम उच्छवास निःश्वास तक छोड़ते हैं।" For Private & Personal Use Only Jain. Education International www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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