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________________ अम्बड परिव्राजक का अन्तिम जीवन २३५ ७ देवपूजा के लिए पुष्प-पत्र तोड़ने के काम में आने वाला अंकुश' ८ केशरिका - प्रमार्जन के काम आने वाला वस्त्र- खंड, ९ पवित्री तांबे की अंगूठी १० गणेत्रिका' - हाथ का कड़ा, ११ छत्र १२ उपानह १३ पादुका १४ गेरुए रंग का वस्त्र आदि उपकरणों को छोड़कर महानदी गंगा को पारकर उसके तट पर बालुका का संधारा विलाएँ, और उस पर भक्त-पान का प्रत्याख्यान कर, छिन्न वृक्ष की तरह निश्चेष्ट होते हुए, मरण की इच्छा से रहित होकर संलेखना पूर्वक मरण को प्रेम के साथ सेवन करें । " इस बात को सभी ने स्वीकार कर लिया और त्रिदंड आदि उपकरणों का परित्याग करके वे सब महानदी गंगा में प्रविष्ट हुए और उसे पार कर उन लोगोंने बालू का संथारा बिछाया और उस पर चढ़कर पूर्व की ओर मुख कर पर्यासन बैठ गये और इस प्रकार कहने लगे 'णमोत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं' - मुक्ति को प्राप्त हुए श्रीअहंत प्रभु को नमस्कार हो ( पृष्ठ २३४ को पादटिप्पणि का शेषांश ) ८ २ - ' कुंडियाओ य' त्ति कमण्डलवः -- वही पत्र १८० ३- 'कं चणियाओ. य' त्ति काञ्चनिका - रुद्राक्षमयमालिका, वही पत्र १८० ४ - करोडिया श्री य' त्ति करोटिका: मृण्मयभाजनविशेषः, वही पत्र १०० ५- 'भिसियाओ' यत्ति वृषिका: उपवेशन पट्टिडिका:-वही पत्र १८० ६ – 'छण्णालए य' त्ति पणनालकानि त्रिकाष्ठिकाः = श्राधारी अधारी, अधारी शब्द सूरसागर के भ्रमरगीत में प्रयुक्त हुआ है। कबीर ने भी इस शब्द का प्रयोग किया हैं । बौद्ध तथा नाथ - सिद्धों के प्राचीन चित्रों में आधारी देखने को मिलता हैं। १ - अंकुसाए' यत्ति अंकुशकाः - देवार्चनार्थं वृक्षपल्लवाकर्षणार्थ अंकुशका:वही, पत्र १८० २ – 'केसरियाओ य' त्ति केशरिका:- प्रमार्जनार्थानि चीवर खण्डानि - वही पत्र १८० ३ - पवित्तए य'त्ति पवित्रकारिण - ताम्रमयान्यङ्गुलीयकानि वही, पत्र १८० " ४ - ' गणेत्रिका हस्ताभरण विशेषः - वही, पत्र १८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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