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तीर्थकर महावीर अम्बड परिव्राजक का अन्तिम जीवन एक बार अम्बड परिव्राजक अपने ७०० शिष्यों के साथ ग्रीष्म काल के समय ज्येष्ठ मास में गंगा नदी के दोनों तटों से होकर काम्पिल्यपुर नगर से पुरिमताल (प्रयाग) के लिए निकले । विहार करते-करते वे साधु ऐसी अटवी में जा पहुचे जो निर्जन थी और जिसके रास्ते अत्यन्त विकट थे। इस अटवी का थोड़ा-सा ही भाग वे तय कर पाये थे कि अपने स्थान से लाया इनका जल समाप्त हो गया । पानी समात हुआ जानकर तृषा से अत्यंत व्याकुल होते हुए पास में पानी का दाता न देखकर वे परस्पर बोले- "हे देवानुप्रियो ! यह बात बिलकुल ठीक है कि इस अग्रामिक अटवी मैं जिसे हम अभी थोड़ा ही पार कर सके हैं, हम लोगों का अपने स्थान से लाया जल समाप्त हो गया। अतः कल्याणकारक यही है कि हम इस अग्रामिक निर्जन अटवी में सर्व प्रकार से चारों ओर किर्म दाता की मार्गणा अथवा गवेषणा करें।" वे सभी दाता खोजने निकले, पर उन्हें कोई भी दाता न दिया।
फिर एक ने कहा-" देवानुप्रियो ! प्रथम तो इस अटवी में एक भी उदकदाता नहीं है, दूसरे हम लोगों को अदत्त जल ग्रहण करन। उचित नहीं है; कारण कि अदत्त जल का पान करना हम सत्र की मर्यादा से सर्वथा विरुद्ध है । हम लोगों का यह भी दृढ़ निश्चय है कि आगार्म काल में भी हम अदत्त जल न ग्रहण करें, न पियें; क्योंकि ऐसा करने से हमारा आचरण लुप्त हो जायेगा । अतः उसकी रक्षा के अभिप्राय से हो अदत्त जल न लेना चाहिए और न पीना चाहिए ।
"इसलिए हे देवानुप्रियो हम सत्र १ त्रिदंड' कमण्डल, रुद्राः की माला, ४ मृत्तिका के पात्र, ५ बैठने की पटिया ६ छण्णालय
१-'तिदंडए' त्ति त्रयाणां दंडकानां सम!हार त्रिदंडकानि-औपपातिक सटी. पत्र १००।
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