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कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक
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को चारों प्रकार की मालाएं' धारण करना नहीं कल्पता था; केवल कर्णपूर रखना कल्पता था । उनको अगर, लोध, चंदन, कुंकुम, इत्यादि मुगन्धित द्रव्य शरीर पर विलेपन करना नहीं कल्पता था; वे गंगा के किनारे की मातृका - गोपी चंदन लगाते थे । उनको अपने उपयोग में लाने के लिए मगध देश में प्रचलित एक प्रस्थ मात्र जल लेना कल्पता था, वह जल भी बहती हुई नदी का होना आवश्यक था, बिना बहता पानी उन्हें नहीं कल्पता था । वह भी जब स्वच्छ हो तभी उन्हें ग्राह्य होता था, कर्दम से मिश्रित नहीं । स्वच्छ होने पर भी जब निर्मल हो, तभी ग्राह्य होता था । निर्मल होने पर भी जब छना हुआ होता था, तभी कल्पता था, अन्यथा नहीं । छना होने पर भी दाता द्वारा दिया हुआ ही उन्हें कल्पता था - बिना दिया हुआ नहीं । उस १ प्रस्थ दिए जल का उपयोग वे पीने के लिए ही करते थे, हाथ-पाँव, चरु चमस आदि धोने के लिए नहीं । उसका उपयोग स्नान के लिए वे नहीं कर सकते थे ।
उन साधुओं को एक आढक जल जो पूर्व लक्षणों वाला हो हाथ, पाद, चरु एवं चमसा आदि धोने के काम में लेना कल्पता था ।
१- मालाओं के चार प्रकार टीका में इस प्रकार दिये हैं: - गंथिभ वेढिम पूरीम संघाइमे' त्ति ग्रन्थिमं----ग्रन्थेन निर्वत्तं माला रूपं ( जो गूंथकर बनायी गयी हो ) बेष्टिमं - पुष्पलम्बूसकादि ( लपेटी हुई ), पूरिमं - पूरण निर्वत्तं वंशशलाका जालक सूरमयतीति ( जो बाँस की शलाका पर बनी हो ) संघातियं - संघातेन निर्वृत्तम् इतरेतरस्य नाल प्रवेशनेन ( समूह करके बनायी हुई )
- पपातिक सूत्र सटीक, पत्र १७७
२- अणुयोगद्वार सटीक सूत्र १३२ में पाठ आता है - दो असईओ पसई, दो सेतिया, चचारिसे आओ कुडओ, चारि कुडेया पत्थो, चत्तारि पत्थया ग्रादगं, चत्तारि आढगाई दोणो, ~ ( पत्र १५१-२ ) आप्टे की संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी' भाग २, पृष्ठ ११२० में आता है -१ प्रस्थ = ३२ पल । ६९७ में एक नल = ४ कर्ष दिया है । और, भाग १ के पृष्ठ ५४३ में १ कर्ष = १६ माषक दिया है ।
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