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'चैत्य' शब्द पर विचार
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पाठ औपपातिक में भी आता है । हार्नेल ने उस ग्रंथ से मिलाने का भी प्रयास नहीं किया ।
हार्नेल ने जो यह पाठ निकाला तो अंग्रेजी पढ़े-लिखे जैन- साहित्य में काम करने वालों ने भी उनकी ही नकलमात्र करके पुस्तकें सम्पादित कर दी और पाठ कैसा होना चाहिए इस पर विचार भी नहीं किया । पी० एल० वैद्य और एन्० ए० गोरे इसी अनुसरणवाद के शिकार हैं।
दूसरों की देखा-देखी बेचरदास ने भी 'भगवान् महावीर ना दश उपासकों' नामक उवासगदसाओ के गुजराती - अनुवाद में चेहयाई वाला पाट छोड़ दिया (पृष्ठ १४ ) ।
'पुष्प भिक्खु' ने सुत्तागमे ४ भागों में प्रकाशित कराया। उसके चौथे भाग में उवासगदसाओ है । पृष्ठ ११३२ पर उन्होंने यह पाठ निकाल दिया है | पर, पुष्षभिक्खु हार्नेल के प्रभाव से परे थे । चैत्य का अर्थ मूर्ति है, और मूर्ति नाम जैनागम में आना ही न चाहिए, इसलिए उन्हें सर्वोत्तम यही लगा कि, जब पाठ ही न होगा तो लोग अर्थ क्या करेंगे । हमने अपने इसी ग्रंथ में पुष्पभिक्खु की ऐसी अनधिकार चेष्टाओं की ओर कुछ अन्य स्थलों पर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है । यहाँ हम बता दें कि उनके पूर्व के स्थानकवासी विद्वान भी उवासगदसाओ में इस पाठ का होना स्वीकार करते हैं
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(२) अर्द्ध मागधी कोष, भाग २, पृष्ठ ७३८ में रतनचंद्र ने इस पाठ को स्वीकार किया है ।
(३) घासीलाल जी ने भी 'चेइयाई' वाला पाठ स्वीकार किया है ( पृष्ठ ३३५ )
पर, रतनचंद्र और घासीलाल जी ने चैत्य शब्द का अर्थ यहाँ साधु किया है ।
'चैत्य' शब्द केवल जैनों का अकेला शब्द नहीं है । संस्कृत-साहित्य
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