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तीर्थङ्कर महावीर
बुद्धिमान हों । उनमें सूत्रों और उनके अर्थ के जानने वाले भिक्षु यदि कोई प्रश्न पूछ देंगे तो उनका मैं क्या उत्तर दूँगा ?"
आर्द्रक - "वह श्रमण प्रयोजन अथवा विचार के बिना कुछ नहीं करते । राजा आदि का बल उनके लिए निःफल है । ऐसा मनुष्य भा किसका भय मानेगा ? ऐसे स्थानों पर श्रद्धा-अनार्य लोग अधिक होते हैं, ऐसी शंका से हमारे श्रमण भगवान् वहाँ नहीं जाते । परन्तु आवश्यकता पड़ने पर वह श्रमण आर्यपुरुषों के प्रश्नों का उत्तर देते हैं ।”
गोशालक - "जैसे कोई व्यापारी लाभ की इच्छा से माल बिछाकर मोड़ एकत्र कर लेता है, मुझे तो तुम्हारा ज्ञातपुत्र भी उसी तरह का व्यक्ति लगता है ।"
आर्द्रक — " वणिक्-व्यापारी तो जीवों की हिंसा करते हैं । वे ममत्व युक्त परिग्रह वाले होते हैं और आसक्ति रखते हैं। धन की इच्छा वाले, स्त्री- भोग में तल्लीन और काम-रस में लोलुप अनार्य भोजन के लिए दूरदूर विचरते हैं । अपने व्यापार के अर्थ वे भीड़ एकत्र करते हैं; पर उनका लाभ तो चार गतियों वाला जगत है; क्योंकि आसक्ति का फल तो दुःख ही होता है । उनको सदा लाभ ही होता हो, ऐसा भी नहीं देवा जाता । जो लाभ होता भी है, तो वह भी स्थायी नहीं होता है । उनके व्यापार में सफलता और असफलता दोनों होती है ।
"पर, ज्ञानी श्रमण तो ऐसे लाभ के लिए साधना करते हैं, जिसका आदि होता है, पर अंत नहीं होता । सब जीवों पर अनुकम्पा करने वाले, धर्म में स्थित और कर्मों का विवेक प्रकट करने वाले, भगवान् की जो तुम व्यापारी से तुलना करते हो, यह तुम्हारा अज्ञान है ।
"नये कर्म को न करना, अबुद्धि का त्याग करके पुराने कर्मों को नष्ट कर देना - ऐसा उपदेश भगवान् करते हैं । इसी लाभ की इच्छा वाले, वे श्रमण हैं, ऐसा मैं मानता हूँ ।
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