________________
आर्द्रकुमार और गोशालक
५५
आश्रव-द्वार ( पाँच महा पाप ) और सँवर - विरति आदि श्रमणधर्मों को जानकर कर्म के लेश मात्र से दूर रहता है, उसे मैं श्रमण कहता हूँ ।"
गोशालक — "हमारे सिद्धान्त के अनुसार ठंडा पानी पीने में, बीज आदि धान्य खाने में, अपने लिए तैयार किये आहार खाने में और स्त्रीसम्भोग में अकेले विचरने वाले साधु को दोष नहीं लगता ।”
आर्द्रक - "यदि ऐसा हो तो वह व्यक्ति गृहस्थ से भिन्न नहीं होगा । गृहस्थ भी इन सब कामों को करते हैं । इन कर्मों को करने वाला वस्तुतः श्रमण ही न होगा । सचित्त धान्य खानेवाले और सचित्त जल पीने वाले भिक्षुओं को तो मात्र आजीविका के लिए भिक्षु समझना चाहिए। मैं ऐसा मानता हूँ कि संसार का त्याग कर चुकने पर भी वे संसार का अंत नहीं कर सके । "
गोशालक - " ऐसा कहकर तो तुम समस्त वादियों का तिरस्कार करते हो ।"
आर्द्रक — "सभी वादी अपने मत की प्रशंसा करते हैं । श्रमण और ब्राह्मण जब उपदेश करते हैं तो एक दूसरे पर आक्षेप करते हैं । उनका कहना है कि तत्त्व उन्हीं के पास है । पर, हम लोग तो केवल मिथ्या मान्यताओं का प्रतिवाद करते हैं । जैन-निर्गथ दूसरे वादियों के समान किसी के रूप का परिहास करके अपने मत का मंडन नहीं करते । किसी भी स-स्थावर जीव को कष्ट न हो, इसका विचार करके जो संयमी अति सावधानी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा हो, वह किसी का तिरस्कार क्यों करेगा ?"
गोशालक - " आगंतगार ( धर्मशाला ) और आरामगार ( बगीचे में बने मकान ) में अनेक दक्ष तथा ऊँच अथवा नीच कुल के बातूनी तथा चुप्पे लोग होंगे, ऐसा विचार करके तुम्हारा श्रमण वहाँ नहीं ठहरता है I श्रमण को भय बना रहता है कि, शायद वे सब मेधावी, शिक्षित और
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org