________________
३४८
तीर्थंकर महावीर प्रवास करता हुआ धन्य अहिछत्रा आ पहुँचा और बड़ी नजराना लेकर राजा के सम्मुख गया । राजा ने धन्य-सार्थवाह की भेंट स्वीकार की, उसका बड़ा आदर-सत्कार किया और उसे शुल्करहित कर दिया। वहाँ अपना सामान बेचने के बाद धन्य ने अन्य सामान लिये और चम्पा-नगरी में आया।
एक बार धर्मघोष नामक साधु वहाँ पधारे। धन्य सार्थवाह उनकी वंदना करने गया। उनका धमापदेश सुनकर अपने पुत्र को गृहभार देकर उसने प्रव्रज्या ले ली। सामायिक आदि ११ अंग पढ़े। वर्षों तक चारित्र पालकर एक मास की संलेखना कर ६० भक्तों को छेद कर वह देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। यहाँ से चल कर वह महाविदेह में सिद्ध होगा।
४८. धन्य-राजगृह-नगरी थी। उस राजगृह नगरी में श्रेणिकनामक राजा राज्य करता था। उस नगर के उत्तर-पूर्व दिशा में गुणशिलकनामक चैत्य था । उस गुणशिलक-चैत्य के निकट ही एक जीर्ण उद्यान था। उस जीर्ण उद्यान में स्थित देवालय विनाश को प्राप्त हो गये थे। उस उद्यान के मध्य भाग में एक बड़ा भग्न कूप था। उस भग्न कूप से निकट ही मालुकाकच्छ था । वह मालुकाकक्ष बहुत-से वृक्षों, गुल्मों, लताओं, बेलों, “घासों, दर्भो आदि से व्याप्त था। चारों ओर से ढंका हुआ यह मध्य भाग में बड़ा विस्तार वाला था ।
उस राजगृह नगर म, धन्य-नामक एक साथवाह रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । पर, उसे कोई संतान न थी। उस धन्य-सार्थवाह को पंथक नामक एक दासकुमार था। वह मुन्दर अंगवाला, पुष्ट तथा चच्चों को क्रीड़ा कराने में अत्यन्त दक्ष था ।
उस राजगृह नगर में विजय नामक एक चोर था।
१-ज्ञाताधर्मकथा सटीक १.१.५ पत्र २००-१-२०२-२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org