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________________ श्रमण श्रमणी ३४९. एक बार मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब की चिन्ता करते हुए, भद्रा सार्थवाही को यह अध्यवसाय हुआ - " मैं कितने ही वर्षों से पाँचों प्रकार के कामभोग का अनुभव करती हुई विचर रही हूँ पर मुझे संतान न हुई । धन्य सार्थवाह को अनुमति लेकर राजगृह नगर के बाहर जो नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कंद, रुद्र, शिव तथा वैश्रमण आदि देवों के जो गृह हैं,. उनकी पूजा करके उनकी मान्यता करूँ ।" दूसरे दिन उसने अपने विचार धन्य से कहे और उसने मान्यताएँ कीं । वह चतुर्दशी, अष्टिमी, अमावस्या और पूर्णिमा को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराती तथा देवताओं की पूजावंदना करती । भद्रा सेठानी गर्भवती हुई और उसे एक पुत्र हुआ । उसने उसका नाम देवदत्त रखा | सेठानी ने देवदत्त को खिलाने के लिए पंथक को सौंप दिया । बच्चों के साथ पंथक देवदत्त को खिला रहा था कि, इतने में विजय चोर आ पहुँचा और उसे उठा ले गया । उसने देवदत्त के सभी आभूषण आदि छीन लिये और उसे उसने कुएँ में फेंक कर और स्वयं मालुकाकक्ष के वन में भाग गया । पंथक रोता-चिल्लाता वापस आया और उसने देवदत्त के गुम होने की सूचना दी । नगरगुप्तिका ( कोतवाल ) को खबर दी गयी । वह दल-चल से खोजने लगा और खोजते खोजते बच्चे का शव कूप में पाया । फिर, विजय चोर को खोजते नगरगुप्तिका मालुकाकक्ष में गया और माल सहित उसे पकड़ लिया । एक बार दानचोरी में नगर के रक्षकों ने धन्य - सार्थवाह को पकड़ा और बाँध कर कैदखाने में डाल दिया । उसकी पत्नी ने नाना प्रकार के भोजन आदि पंथक के हाथ कैदखाने में भेजा । धन्य सार्थवाह उन्हें खाने उस समय विजय चोर ने धन्य से कहा - "हे देवानुप्रिय ! थोड़ा लगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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