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________________ ३५० तीर्थङ्कर महावीर भोजन आप मुझे भी दें ।" भद्र ने कहा - "हे विजय ! मैं यह सब कौए या कुत्ते को दे सकता हूँ; पर अपने पुत्र के हत्यारे को नहीं दे सकता । " भोजन आदि के बाद धन्य को शौच तया लघुशंका की इच्छा हुई । बँधा होने से धन्य अकेला जा नहीं सकता था । अतः उसने विजय चोर को साथ चलने को रहा । विजय ने कहा -- जबतक मुझे अपने भोजन में से देने का वादा न करोगे तब तक मैं नहीं चलने का । बाध्य होकर धन्य ने उसकी बात स्वीकर कर ली । विजय चोर को भी धन्य भोजन देता है, यह जान कर भद्रा धन्य से रुष्ट हो गयी । कुछ समय बाद धन्य छूटकर घर आया । घर पर सबने उसका सत्कार किया पर भद्रा उदास बैठी रही । धन्य ने भद्रा से पूछा - "हे देवानुप्रिय ! मेरे आने पर तुम उदास क्यों हो ?" भद्रा बोली - " मेरे पुत्र के हत्यारे को खाना खिलाना मुझे अच्छा नहीं लगा ।" धन्य ने पूरी स्थिति भद्रा को बता दी । उसे सुनकर भद्रा शान्त हो गयी । उसी समय धर्मघोष आये । उनके पास धन्य ने प्रवज्या ग्रहण करली | और, काल के समय काल करके देवयोनि में उत्पन्न हुआ तथा महाविदेह में जन्म लेने के बाद मुक्त होगा ।' ४६. धर्मघोष —— देखिए धन्य- सार्थवाहों का प्रकरण पत्र ३४८, ३५० ५०. धृतिधर - यह धृतिघर-गाथापति काकन्दी नगरी के वासी थे । १६ वर्षों तक साधु पर्याय पाल कर विपुल पर सिद्ध हुए । १ - ज्ञाताधर्मकथा सटीक १-२ पत्र ८३-२-६६-२। - २ --अंतगड ( अंतगड-अणुत्तरोववाइय - एन० वी० वैध सम्पादित ) पृष्ठ ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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