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वैदिक ग्रंथों का प्रमाण
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(१) लध्वम्लं दीपनं हृद्यं मातुलुंग मुदाहृतम् । त्वक् तिक्ता दुर्जरा तस्य वातकृमि कफापहा ॥ स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं मांसं मारूत पित्तजित् । मेध्यं शूलानि लछर्दिकफारोचक नाशनम् ॥
- मुश्रुत्-संहिता, सूत्र स्थान, अ० ४६, श्लोक १९ २०, पृष्ठ ४२९ (२) चूत् फले परिपक्के केशर मांसास्थिमज्जानः पृथक-पृथक दृश्यन्ते, काल प्रकर्षात् । तान्येव तरुणे नोपलभ्यन्ते सूक्ष्मत्वात् तेषां सूक्ष्माणं केशरादीनां कालः प्रव्यक्तां करोति ।
- सुश्रुत संहिता
(३) खर्जूर मांसान्यथा नारिकेलम्
- चरक संहिता
वैदिक ग्रंथों का प्रमाण
वैदिक ग्रन्थों में भी इस प्रकार के प्रसंग मिलते हैं :यथा वृक्षो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृषा । तस्य लोमानि पर्णानि त्वगस्योत्पाटिका वहिः ॥ त्वच एवास्य रुधिरं, प्रस्यन्दि त्वच उत्पटः । तस्मात्तृणात्तदा प्रैति, रसो वृक्षादि वाहतात् ॥ मांसस्य शकराणि, किनाटं स्त्रावतत्स्थिरम् । अस्थीन्यन्तरतो दारुणि मज्जा मज्जोपमाकृता ॥ यद् वृक्षो वृकणो रोहति मूलान्नवतरः पुनः । - वृहदारण्यक उपनिषद् अ० ३, ब्रा० ९ मंत्र २८,
( ईशादिदशोपनिषद्भाष्यं, निर्णय सागर ) पृष्ठ २०२, -वनस्पति वृक्ष जैसा होता है, पुरुष भी वैसा ही होता है—यह चात बिलकुल सत्य है | वृक्ष के पत्ते होते हैं और पुरुष के शरीर में पत्तों को जगह रोम होते हैं; पुरुष के शरीर में जो त्वचा है, उसकी समता में
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