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________________ श्रमण-श्रमणी कर दी । शालिभद्र के घर की एक दासी कपिल की देखरेख करती थी। उससे शालिभद्र का प्रेम हो गया। उसके साथ भोग-भोगते उस दासी को गर्भ रह गया । अब उस दासी ने अपने भरण-पोषण की माग की। दासी ने उससे कहा-'नगर में एकधन नामक सेट रहता है । प्रातःकाल तुम उससे जाकर दान मांगो वह देगा।'' रात भर कपिल इसी चिन्ता में पड़ा रहा और रात रहते ही सेट से दान लेने चल पड़ा। चोर समझ कर वह पकड़ लिया गया। प्रातःकाल राजा प्रसेनजित के समक्ष उपस्थित किया गया, तो उसने सारी बात सच-सच बता दी। राजा उसके सत्य-भाषण से बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने मन चाहा माँगने को कहा । कपिल ने उसके लिए समय माँगा और एकान्त में वाटिका में बैट कर विचार करने लगा। उसने सोचा-"दो स्वर्ण मासक माँगें तो मुश्किल से धोती होगी। हजार माँयूँ तो आभूषण ही बन सकेंगे। दस हजार माँगूं तो निर्वाह मात्र होगा: पर हाथी-घोड़ा नहीं होग । एक लाख मायूँ तो भी कम होगा।" ऐसा विचार करते हुए कपिल को ज्ञान हुआ कि, इस तृष्णा का अन्त नहीं है। अतः उसने लोभ करके साधुवृत्ति स्वीकार कर ली और दूसरे दिन राजा के समक्ष उपस्थित होकर कपिल ने अपना निर्णय बता दिया । छः मास साधु-जीवन व्यतीत करने के बाद, घाति कर्मों के क्षय होने पर कपिल को केवलज्ञान हुआ और वह कपिलकेवली के नाम से विख्यात हुए। श्रावस्ती-नगरी के अंतराल में बसने वाले ५०० चोरों को प्रतिबोध दिलाने के लिए एक बार कपिलकेवली ने श्रावस्ती-नगरी से विहार किया। चोरों ने कपिलकेवली को त्रास देना प्रारम्भ किया। चोरों के सरदार बलभद्र ने चोरों को रोका और कपिलकेवली से कोई गीत गाने को कहा । कपिलकेवली ने जो गीत सुनाया वह उत्तराध्ययन का आठवा अध्ययन है। उनकी गाथाओं को सुन कर वे सभी चोर प्रतिबोधित हो गये। १-उत्तराध्ययन नमिचन्द्र सूरि की टीका सहित, अ०८, पत्र १२४-१-१३२-२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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