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________________ जैन-धर्म में हिंसा निंद्य है। न करे, बारम्बार पौष्टिक भोजन का परित्याग और कोयोत्सर्ग करता रहे तथा स्वाध्याय-योग में प्रयत्नवान बने । (२) हिंसे बाले मुसावई, माइल्ले पिसुणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं, सेयमेयं ति मन्नइ ॥ -उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित, अ० ५, गा० ९, पत्र १०३-२ -हिंसा करनेवाला, झूट बोलनेवाला, छल-कपट करनेवाला, चुगली करनेवाला और धूर्तता करनेवाला तथा मदिरा और मांस खाने वाला मूर्ख अज्ञानी जीव इन उक्त कामों को श्रेष्ठ समझता है । (३)............... ...............................। भुजमाणे सुरं मंसं परिवूढ़े परंदमे ॥ प्रयकर भोई य, दिल्ले चिय लोहिए । आउयं नरए कंखे, जहाऽऽएसं व एलए ॥ __--उत्तराध्ययन सटीक, अ० ७, गा० ६-७ पत्र ११७-१ -मदिरा और मांस का सेवन करने वाला, बलवान होकर दूसरे का दमन करता है । जैसे पुष्ट हुआ वह बकरा अतिथि को चाहता है; उसी प्रकार कर्कर करके बकरे के मांस के खाने वाला तथा जिसका पेट रुधिर और मांस के उपचय से बढ़ा हुआ है, ऐसा जीव अपना वास नरक में चाहता है। (४) तुहं पियाई मंसाई, खंडाई सोल्लगाणिय । खाइयो मि समसाई अग्गिवराणइ रणेगसो॥ -उत्तराध्ययन सटीक, अ० १९, गा० ६९, पत्र २६३.२ -मुझे मांस अत्यन्त प्रिय था, इस प्रकार कह कर उन यमपुरुषों ने मेरे शरीर के मांस को काटकर, भूनकर और अग्नि के समान लाल करके मुझे अनेक बार खिलाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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