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तीर्थकर महावीर
(आ) फूड
(इ) एंज्वायनेंट-प्लीजिंग आर लल्ली आर अट्रैक्टिव आंब्जेक्ट यथा नामिषेषु प्रसंगोस्ति
-महाभारत १२, १५८, २३ (इ) क्रूट आव जम्बीर ( ई ) मीसं आव लिवलीहुड यथा
आमिषं यच्च पूर्वेषां राजसं च मलं भृशम् । अनृतं नाम तद्भूतं क्षिप्तेन पृथ्वीतले ॥
---रामायण ७, ७४, १६ जैन-धर्म में हिंसा निंद्य है इन प्रसंगों से यह स्पष्ट हो गया होगा कि, प्रसंग तथा संदर्भ पर बिना विचार किये अर्थ करना वस्तुतः अनर्थ है। जो लोग जैन-ग्रंथों के पाटो का अनर्गल अर्थ करते हैं, उन्हें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जैन-धर्म में श्रावकों के लिए प्रथम व्रत स्थूलप्राणातिपातविरमण है। हमने उसका मविस्तार वर्णन श्रावकों के प्रसंग में किया है। जब श्रावक के लिए यह व्रत है, तो फिर साधु-साध्वी के सम्बन्ध में क्या कहना !
हिंसा की निन्दा स्थल-स्थल पर जैन-शास्त्रों में की गयी है। हम उनमें से कुछ यहाँ दे रहे हैं। (१) अमज्ज मंसासि अमच्छरीश्रा,
अभिक्खणं निविगई गया य । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी,
सज्भाय जोगे पयो हविज्जा ॥
-दशवैकालिक सूत्र सटीक, चू० २, गा० ७ पत्र २८०-१ - यदि सच्चा साधु बनना है तो मद्य-मांस से घृणा करे, किसी से ईप्या
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