________________
१८
तीर्थङ्कर महावीर
( सूत्र ८५७ की टीका ) पत्र ४१३ - २, निशीथ सूत्र सभाष्य चूर्णि विभाग ४ पृष्ठ १०२, १५१ तथा उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका सहित पत्र ७३ - १ में भी है ।
वृहत्कल्पसूत्र-निर्युक्ति-भाष्य सहित ( विभाग ४, पृष्ठ ११४४ गाथा ४२१४ ) में कुत्रिकापण की परिभाषा इस रूप में दी हुई है:
कुत्ति पुढ़वीय सण्णा जं विज्जति तत्थ चेदण मचेयं । गहणुवभोगे य खमं न तं तहि श्रवणे णत्थि ॥
अर्थात् तीनों लोकों में मिलनेवाले जीव-अजीव सभी पदार्थ जहाँ मिलते हों, उसे कुत्रिकापण कहते हैं । विशेषावश्यक की टीका ( देखिये गाथा २४८६, पत्र ९९४ - २ ) में भी यही अर्थ दिया है ।
कुत्रिकापण में मूल्य तीन तरह से लगता था । बृहत्कल्प भाष्य ( विभाग ४, पृष्ठ ११४४ ) में गाथा ४२१५ में आता है
+---
पणती पागतियाणं, साहस्सो होति इब्भमादीणं । उक्कोस सतसहस्सं, उत्तम पुरिसाण उवधी व ॥
-- प्राकृतपुरुषाणां प्रव्रजतामुपधिः कुत्रिकापणसत्कः, 'पञ्चकः ' पञ्चरूपक मूल्यो भवति । 'इभ्यादिनां' इव्भ श्रेष्ठि-सार्थ वाहादीनां मध्यमपुरुषाणां 'साहस्रः ' सहस्रमूल्य उपाधिः । 'उत्तम पुरुपाणां चक्रवर्ति-माण्ड लिकप्रभृतीनामुपधिः शतसहस्रमूल्यो भवति । एतच्च मूल्यमानं जघन्यतो मन्तव्यम्, उत्कर्षतः पुनस्त्रयाणामप्यनियतम् । अत्र च पञ्चकं जघन्यम्, सहस्रं मध्यमम्, शत सहस्रकमुत्कृष्टतम् ॥
अर्थात् इस दूकान पर साधारण व्यक्ति से जिसका मूल्य पाँच रुपया लिया जाता था, इन्भ श्रेष्ठि आदि से उसी का मूल्य सहस्र रुपया और चक्रवर्ती आदि से लाख रुपया लिया जाता था । इस सम्बन्ध में विशेषावश्यक की टीका लिखा है :
( पत्र ९९४ - २ ) में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org