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नन्दिषेण की प्रव्रज्या
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में बहुत समय लग गया । वेश्या रसोई तैयार करके बैठी थी । बारम्बार बुलावा भेजने लगी । पर, अभिग्रह पूर्ण न होने के कारण नंदिषेण न उठा । कुछ देर बाद वेश्या स्वयं आकर बोली - "स्वामी ! कब से रसोई तैयार है । बड़ी देर से प्रतीक्षा कर रही थी । रसोई निरस हो गयी । "
नंदिपेण बोला- “अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार आज मैं १० व्यक्तियों को प्रतिबोध नहीं करा सका । ९ व्यक्ति ही प्रतिबोध पा सके और १० - वाँ व्यक्ति अब मैं स्वयंहूँ ।"
इस प्रकार वेश्या के घर से निकलकर नंदिषेण ने भगवान् के पास जाकर पुनः दीक्षा ले ली । और, अपने दुष्कृत्य की आलोचना करके महावीर स्वामी के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता रहा और तीक्ष्ण व्रतों को पालते हुए मरकर देवता हुआ ।
भगवान् ने अपनी १३ वीं वर्षा राजगृह में ही बितायी ।
कुत्रिकापण
कुत्रिकापण का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथा श्रुतस्कंध १, अध्ययन १, सूत्र २८, ( सटीक, पत्र ५७- १ ) में आया है । वहाँ उसकी टीका इस प्रकार दी हुई है
:--
देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमपाताल लक्षण भूत्रितय संभवि वस्तु सम्पादक आपणो
-पत्र ६१-१
ज्ञाताधर्मकथा के अतिरिक्त इसका उल्लेख भगवतीसूत्र सटीक शतक २, उद्देशः ५ सूत्र १०७ पत्र २४० तथा शतक है सूत्र ३८५ पत्र ८६७; औपपातिक सूत्र सटीक सूत्र १६ पत्र ६२, ठाणांग सूत्र सटीक
१ – त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ६, श्लोक ४०८ - ४३६ पत्र ८५-१--८६-१
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