________________
तीर्थङ्कर महावीर
इस प्रकार देवता ने बार-बार कहा । पर, नन्दिषेण ने इस पर किंचित् मात्र ध्यान नहीं दिया ।
१६
एक बार एकाकी विहार करने वाला नंदिषेण छट्ट की पारणा के लिए. भिक्षा लेने के निमित्त निकला और भोगों के दोष की प्रेरणा से वह वेश्या के घर में घुसा । वहाँ जाकर उसने 'धर्मलाभ' कहा। इस पर वह वेश्या बोली -- "मुझे तो केवल 'अर्थलाभ' अपेक्षित है । 'धर्मलाभ' की मुझे आवश्यकता नहीं है ।" इस प्रकार कहती हुई विकार चित्त वाली वह वेश्या हँस पड़ी ।
"यह विकारी मुझ पर हँसती क्यों है ?” – ऐसा विचार करते हुए, नन्दिषेण ने एक तृण खींचकर रत्नों का ढेर लगा दिया। और, "ले 'अर्थलाभ " - कहता हुआ, नन्दिषेण उसके घर से बाहर निकल पड़ा ।
वेश्या संभ्रम उसके पीछे दौड़ी और कहने लगी- - " हे प्राणनाथ ! यह दुष्कर व्रत त्याग दो !! मेरे साथ भोग भोगो, अन्यथा मैं अपना प्राण त्याग दूँगी ।"
बारम्बार इस विनती के फलस्वरूप, व्रत तजने के दोष को जानते हुए भी, भोग्य कर्म के वश होकर नंदिषेण ने उसके वचन को स्वीकार कर लिया । पर यह प्रतिज्ञा की - " मैं प्रतिदिन १० अथवा उससे अधिक मनुष्यों को प्रतिबोध कराऊँगा । यदि किसी दिन मैं इतने व्यक्ति को प्रतिबोध न करा सका, तो उसी दिन मैं फिर दीक्षा ले लूँगा ।" का वेश त्याग कर, नंदिषेण वेश्या के घर रहने लगा और दीक्षा लेने से पूर्व की देवता की बात स्मरण करने लगा । भोगों को भोगता हुआ, वेश्या के पास रहते हुए, वह प्रतिदिन १० व्यक्तियों को प्रतिबोध करा महावीरस्वामी के पास दीक्षा के लिए भेजने के
बाद भोजन करता । भोग्य कर्म के क्षीण होने से, एक दिन नंदिषेण ने प्रतिबोध को प्रतिबोध कराया, पर १० - वें व्यक्ति ( जो किसी भी रूप में प्रतिबोध नहीं पाया। उसके प्रतिबोध
९ व्यक्तियों को सोनार था ) ने कराने के प्रयास
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org