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नन्दिषेण की प्रव्रज्या नन्दिषेण की प्रवज्या
भगवान् महावीर की धर्मदेशना से प्रभावित होकर, एक दिन नन्दिषेण ने प्रवज्या ग्रहण करने के लिए अपने पिता से अनुज्ञा माँगी । श्रेणिक की अनुमति मिलते ही व्रत लेने के लिए वह घर से निकला ।
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उस समय किसी देवता ने अन्तरिक्ष से कहा - " हे वत्स ! व्रत लेने के लिए उत्सुक होकर तुम कहाँ जाते हो ? अभी तुम्हारे चरित्र का आवरण करने वाले भोगफल कर्म शेष हैं । जब तक उन कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, तब तक थोड़े समय तक तुम घर में ही रहो । उनके क्षय होने के बाद दीक्षा लो; क्योंकि अकाल में की हुई क्रिया फलीभूत नहीं होती । " उसे सुनकर नन्दिषेण ने कहा - " मैं साधुपने में निमग्न हूँ । चरित्र - को आवरण करने वाले कर्म मेरा क्या करेंगे ?"
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ऐसा कहकर वह भगवान् महावीर के पास आया और प्रभु के चरणकमल के निकट उसने दीक्षा ले ली। छह अहम आदि तप करता हुआ वह प्रभु के साथ विहार करने लगा ।
गुरु के पास बैठकर उसने सूत्रों का अध्ययन किया और परिषदों को सहन करता रहा । प्रतिदिन वह आतापना लेता और विकट तप करता । इसकी विकट तपस्या से वह देवता बड़ा उद्विग्न होता। एक बार वह देवता बोला - " हे नन्दिषेण ? तुम मेरी बात क्यों नहीं सुनते ? हे दुराग्रही ! भोगफल भोगे बिना त्राण नहीं है । तुम यह वृथा प्रयत्न क्यों करते हो ?"
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१ - यह नंदिपेण श्रेणिक के हाथी सेचनक की देख-रेख करता था - भावश्यकचूं, उत्तरार्द्ध, पत्र १७१, आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ६८२–२ २ - आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र ५५६;
आवश्यक हारिभद्रीय टीका, पत्र ४३० --- १
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