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________________ कुत्रिकापण १६ (१) अस्मिश्च कुत्रिकापणे वणिजः कस्यापि मन्त्रयाद्याराधितः सिद्धो व्यन्तर सुरः क्रायक जन समीहितं सर्वमपि वस्तु कुतोऽप्यानीय संपादयति....। (२) अन्येतु वदन्ति–'वणिग् रहितः सुराधिष्ठिता एव तं आपणा भवन्ति । ततो मूल्य द्रव्यमपि एवं व्यन्तर सुरः स्वीकारोति । (१) दूकान का मालिक किसी व्यन्तर को सिद्ध कर लेता था। वही व्यन्तर वस्तुओं की व्यवस्था कर देता था । (२) पर, अन्य लोगों का कहना है कि ये दूकानें वणिक-रहित होती थीं । व्यन्तर ही उनको चलाते थे और द्रव्य का मूल्य भी वे ही स्वीकार करते थे। वृहत्कल्पसूत्र सभाष्य (विभाग ४, पृष्ठ ११४५) में उज्जैनी में चण्डप्रद्योत के काल में ९ कुत्रिकापण होने का उल्लेख है - - पजोएं णरसीहे णव उज्जेणीय कुत्तिया आसी उज्जैनी के, अतिरिक्त राजगृह में भी कुत्रिकापण था ( वृहत् कल्पसूत्र सभाष्य, विभाग ४, गाथा ४२२३, पृष्ठ ११४६ )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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