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तीर्थंकर महावीर
ये १६ परिव्राजक ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास-पुराण, निघंटु ( नामकोश) इन ६ शास्त्रों का तथा सांगोपांग सरहस्य चारों वेदों का पाटन द्वारा प्रचार कहते थे । स्वयं भी इन शास्त्रों के ज्ञाता थे, और इन सब को धारण करने में समर्थ थे । इसलिए, वे पडंगवेदविद् कहे जाते थे । ये षष्टितंत्र' - कापिल शास्त्र के भी वेत्ता थे । गणित शास्त्र,' शिक्षा शास्त्र कल्प, व्याकरण, छंद शास्त्र, निरुक्त एवं ज्योतिष शास्त्र तथा अन्य चहुत से ब्राह्मण- शास्त्रों में ये परिपक ज्ञान वाले थे ।
पानी से
अथवा मिट्टी
ये समस्त परिव्राजक दानधर्म की, शौचधर्म की, तीर्थाभिषेक की, पुष्टि करते हुए, सत्र को भली भाँति समझाते हुए तथा युक्ति पूर्वक उनकी प्ररूपणा करते हुए विचरते थे । उनका कहना था कि जो कुछ भी उनकी दृष्टि मैं अपवित्र होता है, वह जब से प्रक्षालित होता है, तो पवित्र हो जाता है को तथा अपने आचार-विचार को चोखा समझते थे । मत था कि इस प्रकार पवित्र होने के कारण वे निर्विघ्न स्वर्ग जाने वाले थे ।
।
इस रूप
में वे अपने
और, उनका
इन परिव्राजकों को इतनी बातें नहीं कल्पत कुएँ में प्रवेश करना, तालाब में प्रवेश करना, नदी में प्रवेश करना, बावड़ी में प्रवेश करना
१ - कापिलीय तंत्र पंडिता: - औपपातिक सटीक, पत्र १७५ २ - 'संखाणे ' त्ति संङ्ख्याने – गणितस्कंधे- वही, पत्र १७५
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३ - 'सिक्खाकप्पे ' त्ति शिक्षा च अक्षरस्वरूप निरूपकं शास्त्रं - वही; पत्र १७५ ४ – कल्पश्च - तथाविध समाचार निरूपकं शास्त्रं - वही, पत्र १७५ ५- वोगरणे' त्ति शब्दलक्षण शास्त्रे - वही, पत्र १७५, ६- निस्ते त्ति शब्द निरुक्तिप्रतिपादके — वही, पत्र १७५
- 'अगडं व' त्ति अवटं कूपं श्रपपातिकसूत्र सटीक पत्र १७६ ।
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- 'वाविं व' त्ति वापी - चतुरस्र जलाशय विशेषः, वही, पत्र १७६ ।
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