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कुछ अन्य सदाचारी परिव्राजक २३१ पुष्करिणी' में प्रवेश करना, दीर्घिका' में प्रवेश करना, गुंजालिका में प्रवेश करना, सरोवर में प्रवेश करना एवं समुद्र में प्रवेश करना–हाँ मार्ग में चलते समय कोई नदी या तालाब अथवा जलाशय बीच में आ जाये तो अगत्या उसमें होकर जाना निषिद्ध नहीं था।
इसी प्रकार शकट' यावत् संदीमनी शिविका पर आरूढ़ होना भी उन्हें नहीं कल्पता था । घोड़े, हाथी, ऊँट, त्रैल भैंसा, एवं गधे पर चढ़कर चलना भी इन्हें नहीं कल्पता था-बलाभियोग को छोड़कर । नट-यावत् मागह के तमाशे देखना भी उन्हें नहीं कल्पता था। हरित वनस्पति का स्पर्श करना, संघर्पण करना, हस्तादिक द्वारा अवरोध करना, शाखा एवं उनके पत्ते आदि को ऊँचा करना अथवा उन्हें मडोरना, हस्त आदि द्वारा पनक आदि का संमार्जन करना, ये बातें भी उन परिव्राजकों को नहीं कल्पती थी। स्त्रोकथा, भक्तकथा, देशकथा, राजकथा एवं जनपदकथा भी उनको नहीं कल्पती थीं; क्योंकि इन कथाओं से अनर्थदंड का बंध होता है । लोहे, वपु, ताम्र, जस्ते, सीसे, चाँदी, स्वर्ण के तथा अन्य बहुमूल्य पात्र धारण करना इन्हें नहीं कल्पता था । उन्हें केवल तुम्बे, काष्ठ तथा मिट्टी के पात्र कल्पते था। लोहे के बंधन से युक्त, वपु के बंधन से युक्त, ताँबे के बंधन से युक्त, जसद के बंधन से युक्त, सीसे के बंधन से युक्त,
१-'पुक्खरिणी व' त्ति पुष्करिणी वर्तु ल स एव पुष्करयुतो वही । पृष्ठ १७६ २–'दीहियं व' त्ति दीधिका सारिणो-वही, पत्र १७३. ३-'गुंजालियं व' त्ति गुआलिका-वक्रसारिणी-वही, पत्र १७३.
४-यहाँ टीकाकार ने 'रहं वा जाणं वा जुग्गं वा गिल्लिं वा थिल्लिं वा पहवणं वा सीयं वा, जोड़ने की बात कही है ( औपपातिकसूत्र सटीक पत्र १७६ ) रह = रथं; जाणं = यानं; जुग्गं= युग्यं, घोड़े पर; गिल्लं = ऐसी डोली जिसे दो पुरुष लेकर चलते हैं; थिल्लं = दो घोड़े की बग्धी; प्रवहण = बहली (स्त्रियों के लिए यान-विशेष ) सीयं = बग्घी।
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