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३४-वाँ वर्षावास कालोदयी की शंका का समाधान
निकटवर्ती प्रदेशों में विहार कर भगवान् पुनः राजगृह के गुणशिलक चैत्य में आकर ठहरे ।
उस गुणशिलक के निकट ही कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक, और सुहस्ती-नामक अन्यतीथिकोपासक रहते थे। एक समय वे सभी अन्यतीर्थिक सुख पूर्वक बैठे हुए परस्पर वार्तालाप कर रहे थे--"श्रमण ज्ञातपुत्र (महावीर) पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं-धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय ।' उनमें श्रमण ज्ञातपुत्र चार आस्तिकायधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय - को आजीवकाय कहते हैं और एक जीवास्तिकाय को वह जीवकाय कहते हैं। उन पाँच अस्तिकायों में चार अस्तिकायों को श्रमण ज्ञातपुत्र अरूपिकाय कहते हैं और एक पुद्गलस्तिकाय को श्रमण ज्ञातपुत्र रूपिकाय और अजीवकाय बताते हैं । इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है ?"
गुणशिलक-चैत्य में भगवान् का समवसरण हुआ और अंत में परिषदावापस लौटी । उसके बाद भगवान् के शिष्य इन्द्रभूति गौतम भिक्षा के लिए नगर में गये। अन्यतीर्थिकों ने गौतम स्वामी को थोड़ी दूर से जाते हुए देखा । उन्हें देखकर वे परस्पर वार्ता करने लगे- "हे देवानुप्रियो !
१-ठाणांगसूत्र सटीक ठा० ५ उ० २, सूत्र ४४१ पत्र ३३२-२-३३४-१ । समवायांगसूत्र सटीक समवाय ५, पत्र १०-१
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