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तीर्थंकर महावीर वह अन्य सब की विरति कराते हैं। तो इस प्रकार स्थूलप्राणातिपात की विरति करते हुए अन्य जोव को उपधात की अनुमति का दोष लगता है ?
"अहो गौतम ! इस प्रकार वाक्यालंकार से त्रस प्राणियों को दंड का निषेध करके प्रत्याख्यान करते हुए दुष्ट प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार प्रत्याख्यान करनेवाले दुष्ट प्रत्याख्यान कराते हैं । इस रूप में प्रत्याख्यान करने वाला श्रावक और प्रत्याख्यान कराने वाले साधु दोनों ही अपनी प्रतिज्ञा का उल्लंघन करते हैं। किस कारण के वशीभूत होकर वह प्रतिज्ञा भंग करते हैं ? अब मैं कारण बताता हूँ। निश्चय ही संसारी जीव जो पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति-रूप स्थावर जीव हैं, वे कर्म के उदय से त्रस-रूप में उत्पन्न होते हैं। तथा त्रस जो द्विइंद्रियादिक जीव हैं, वे स्थावर-रूप से उत्पन्न होते हैं। स्थावर की काया के बाद त्रस-रूप में और त्रस-काया के बाद स्थावर-रूप में उत्पन्न होते हैं । इस कारण से त्रसजीव स्थावर-रूप में उत्पन्न होने के बाद उन स्थानक त्रसकाय का हनन प्रतिज्ञाभंग है ।
"यदि प्रतिज्ञा इस रूप में हो तो हनन न हो-राजाज्ञा आदि कारण से किसी गृहस्थ अथवा चोर के बाँधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं त्रसभूत जीवों की हिंसा नहीं करूँगा।"
"इस प्रकार 'भूत' इस विशेषण के सामर्थ्य से उक्त दोषापत्ति टल जाती है । इस पर भी जो क्रोध अथवा लोभ से दूसरों को निर्विशेषण प्रत्याख्यान कराते हैं, वह न्याय नहीं है। क्यों गौतम ? मेरी यह बात तुमको ठीक अँचती है न ?”
पेढालपुत्र उदक के प्रश्न को सुनकर गौतम स्वामी ने कहा-"हे आयुष्मान् उदक ! तुमने जो बात कही वह मुझे अँचती नहीं है। जो श्रमणब्राह्मण 'भूत' शब्द जोड़कर त्रस जीवों का प्रत्याख्यान करें', ऐसा कहते
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