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आनन्द
४३७ थी। आनंद श्रावक को अनेक प्रकार शीलवत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास से आत्मा को संस्कार युक्त करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । पन्द्रहवाँ वर्ष जब चल रहा था, तो एक समय पूर्व रात्रि के अपर समय में ( उत्तरार्द्ध में ) धर्म का अनुष्ठान करते-करते इस प्रकार का मानसिक संकल्प आत्मा के विषय में उत्पन्न हुआ----"मैं वाणिज्यग्राम नगर में बहुतों का; राजा, ईश्वर यावत् आत्मीय जनों का आधार हूँ। इस व्यग्रता के कारण मैं श्रमण भगवान् महावीर के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। इसलिए यह अच्छा होगा कि, सूर्योदय होने पर विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य सगे-सम्बन्धी आदि को जिमा कर पूरण श्रावक की तरह यावत् ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके मित्रों यावत् ज्येष्ठ पुत्र से पूछकर कोल्लागसन्निवेश में ज्ञातकुल की पोषधशाला का प्रतिलेखन कर श्रमण भगवान् महावीर के समीप की धर्मप्रज्ञप्ति स्वीकार करके विचरूँ !' उसने ऐसा विचार किया, विचार करके दूसरे दिन मित्र आदि को विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य जिमाने के बाद पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारों से उनका सत्कार-सम्मान किया ।
उसके बाद उसने अपने पुत्र को बुलाकर कहा-“हे पुत्र ! मैं वाणिज्य ग्राम नगर में बहुत से राजा ईश्वर आदि का आधार हूँ। मैं अब कुटुम्ब का भार तुम्हें देकर विचरना चाहता हूँ। आनन्द श्रावक के पुत्र ने अपने पिता का वचन स्वीकार कर लिया। आनंद श्रावक ने पूरण के समान' अपने पुत्र को कार्यभार सौंप दिया और कहा कि भविष्य में मुझसे किसी सम्बन्ध में बात न पूछना।
१-'जहा पूरणो' ति भगवत्यभिहितो बाल तपस्वी स यथा स्वस्थाने पुत्रादि स्थापनम करोत्तथाऽयं कृतवानित्यर्थ :
-कीर्तिविजय-रचित विचाररत्नाकर, पत्र ७०-२ यह कथा भगवतीसत्र सटीक शतक ३, उद्देशा २, सत्र १४३, पत्र ३०४-३०५ में आती है।
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