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________________ तीर्थकर महावीर तदनन्तर आनन्द श्रावक सबसे आज्ञा लेकर घर से निकला और कोल्लाग सन्निवेश में पोषधशाला में गया । पहुँचकर पोषधशाला को पूँजा, पूँज कर उच्चार प्रस्रवण भूमि ( पेशाब करने की भूमि की और शौच जाने की भूमि की) की पडिलेहणा की। पडिलेहणा करके दर्भ के संथारे को बिछाया । फिर दर्भ के संथारे पर बैठा। वहाँ वह भगवान् महावीर के पास की धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरने लगा। फिर आनन्द श्रावक ने श्रावक की ११ प्रतिमाओं को स्वीकार किया, उसमें से पहली प्रतिमा को सूत्र के अनुसार, प्रतिमा-सम्बन्धी कल्प के अनुसार, मार्ग के अनुसार, तत्त्व के अनुसार, सम्यक् रूप से उसने काय द्वारा ग्रहण किया तथा उपयोग पूर्वक रक्षण किया। अतिचारों का त्याग करके विशुद्ध किया। प्रत्याख्यान का समय समाप्त होने पर भी, कुछ समय तक स्थित रहकर पूरा किया। इस प्रकार आनन्द श्रावक ने ग्यारहों प्रतिमाएँ स्वीकार की। इस प्रकार की तपस्याओं से वह सूख गया और उसकी नस-नस दिखलायी पड़ने लगी। । ___ एक दिन धर्मजागरण करते-करते उसे यह विचार उत्पन्न हुआ-- "मैं इस कर्तव्य से अस्थियों का पिंजर मात्र रह गया हूँ। तो भी मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग हैं । अतः जब तक ये उत्थान आदि मेरे में हैं, तब तक कल सूर्योदय होने पर अपश्चिम मरणान्तिक संलेखना को जोपणा से जूपित होकर भक्तपान का प्रत्याख्यान करके मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।" पश्चात् आनन्द श्रावक को किसी समय शुभ अध्यवसाय से, शुभ परिणाम से और विशुद्ध होती हुई लेश्याओं से अवधिज्ञान को आवरण करने वाले क्षयोपशम हो जाने से अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ और वह पूर्व दिशा मैं लवण समुद्र के अन्दर पाँच सौ योजन क्षेत्र जानने और देखने लगा--इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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