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प्रानन्द
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प्रकार दक्षिण में और पश्चिम में । उत्तर में क्षुल्ल हिमवंत पर्वत को जानने और देखने लगा, उर्व में सौधर्मकल्पतक जानने और देखने लगा । अधोदिशा में चौरासी हजार स्थिति वाले लोलुप' नरक तक जानने और देखने लगा।
उस काल में और उस समय में भगवान् महावीर का समवसरण हुआ। परिषदा निकली । वह वापस चली गयी। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठय शिष्य इन्द्र भूति सात हाथ की अवगाहना वाले, समचतुरंस संथान वाले, वज्रर्षभनाराच सघयण वाले नुवर्ण, पुलक, निकष और पद्म के समान गोरे, उग्रतपस्वी, दीप्त तपवाले, घोर तपवाले, महा तपस्वी, उदार, गुणवान, घोर तपस्वी, घोर ब्रह्मचारी, उत्सृष्ट शरीर वाले अर्थात् शरीर संस्कार न करने वाले, संक्षिप्त विपुल तेजोलेश्या धारी षष्ठ षष्ठ भक्त के निरन्तर तपः-कर्म से, संयम से
और अनशनादि बारह प्रकार की तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तब गौतम स्वामी ने छह खमण के पारणे के दिन पहली पोरसी में स्वाध्याय किया दूसरी पोरसी में ध्यान किया और तीसरी पोरसी में धीरे-धीरे, अचपल रूप में, असम्मान होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना
१. प्रज्ञापनासूत्र सटीक, पद २ सूत्र ४२, पत्र ७६-२ में नरकों की संख्या ७ बतायी गयी है । वहाँ पाठ आता है:
रयणप्पभाए, सक्करप्पभाए, बालुकप्पभाए, पंकप्पभाए, धूमप्पभाए, तमप्पभाए, तमतमप्पभाए। ___इसमें रयणप्पभा ( रत्न प्रभा) में ६ नरकावास हैं। ठणांग सूत्र में पाठ आता है:
जम्बू दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स य दाहिणेण मिमीसे रतणप्पभाते पुढवीए छ अवकत महानिरता पं० तं० लोले १, लोलुए २, उदड्डे ३, निदड्डे ४, जरते ५, पज्जरते ६ । ___-ठाणांगसूत्र सटीक, उत्तरार्द्ध, ठा०६, उ० ३, स० ५१५ पत्र ३६५.२ ।
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