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तीर्थकर महावीर कहने लगा- "हे देवानुप्रिये ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म सुना और वह धर्म मुझे इष्ट है। वह मुझे बहुत रुचा है । हे देवाना प्रिये ! इसलिए तुम भी जाओ। श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना करो यावत् पर्युपासना करो और श्रमण भगवान् महावीर से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो।"
आनंद श्रावक का कथन सुनकर उसकी भार्या शिवानन्दा हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर शीघ्र व्यवस्था करने के लिए आदेश दिया।'
शिवानन्दा भगवान् के निकट गयी। भगवान् महावीर ने बड़ी परिषदा में यावत् धर्म का कथन किया। शिवानंदा श्रमण भगवान् महावीर के समीप धर्म श्रवण करके और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट हुई । उसने भी गृहस्थ-धर्म को स्वीकार किया । फिर, वह घर वापस लौटी।
उसके बाद गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा- "हे भगवन् ! क्या आनंद श्रावक आप के समीप प्रव्रजित होने में समर्थ है ?"
इस पर भगवान् ने उत्तर दिया--"हे गौतम ! ऐसा नहीं है, आनन्द श्रावक बहुत वर्षों पर्यन्त श्रावकपन पालन करेगा । और, पालन करके सौधर्मकल्प के अरुणाभ-विमान में देवता-रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ देवताओं की स्थिति चार पल्योपम कही गयी है। तदनुसार आनंद श्रावक की भी चार पल्योपम की स्थिति वहाँ होगी।
आनंद श्रावक जीव-अजीव को जानने वाला यावत् प्रतिलाभ करता हुआ रहता था। उसकी भार्या शिवानंदा भी श्राविका होकर जीव-अजीव को जानने वाली यावत् प्रतिलाभ ( दान ) करती हुई रहती
१-खिप्पामेव · पिज्जूवासइ वाला परा पाठ उपासक दशांग सटीक, अ०७, पत्र ४३-१ से ४३-२ तक में है। 'भगवान् महावीर का दश उपासको' में बेचरदास ने उक्त अंश को पूरा-का-परा छोड़ दिया है। हमने भी ७३ श्रावक के प्रसंग में उसका सविस्तार वर्णन किया है । ( देखिए पृष्ठ ४७६ )
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