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आनन्द
४३५ तौर्थिकों का और अन्यतीर्थिकों के देवताओं का और अन्यतीर्थिकों को स्वीकृत अरिहंत चैत्य ( प्रतिमा ) का वंदन - नमन नहीं करूँगा ।
यहाँ 'चैत्य' शब्द आया है । हमने भगवान् के ३१ - वें वर्षावास वाले प्रसंग मैं ( पृष्ठ २२५ ) और इस अध्याय के अन्त ( पृष्ठ ४४२ ) 'चैत्य' शब्द पर विशेष विचार किया है ।
में
"पहिले उनके बिना बोले उनके साथ बोलना या पुनः पुनः वार्तालाप करना; उन्हें गुरु- बुद्धि से अशन, पान, खादिम, स्वादिम देना मुझे नहीं कल्पता ।"
" राजा के अभियोग से, गण के अभियोग से, बलवान के अभियोग से, देवता के अभियोग से, गुरु आदि के निग्रह ( परवशता ) से और वृत्तिकान्तार से ( इन कारणों के होने पर ही ) देना कल्पता है ।"
"निर्गन्थ श्रमणों को प्रासुक एषणीय, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, कम्बल, प्रतिग्रह ( पात्र ), पाद-पोंछन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तार, औषध, भैषज, प्रतिलाभ कराते हुए विचरना मुझे कल्पता है । "
इस प्रकार कहकर उसने इसका अभिग्रह लिया, फिर प्रश्न पूछे, प्रश्न पूछकर अर्थ को ग्रहण किया, फिर श्रमण भगवान् की तीन बार वन्दना की ।
वंदन करने के बाद श्रमण भगवान् महावीर के समीप से दूतिपलाश चैत्य के बाहर निकला, निकल कर जहाँ वाणिज्यग्राम नगर और जहाँ उसका घर था, वहाँ आया । आकर अपनी पत्नी शिवानन्दा से इस प्रकार
पृष्ठ ४३४ पाद टिप्पणि का शेषांश ।
तदिव कान्तारं क्षेत्र कालो वा वृत्तिकान्तारं निर्वाहमभाव इत्यर्थः तस्मादन्यत्र निषेधो दान प्रदानादेरिति प्रकृतिमिति
कीर्तिविजय उपाध्याय रचित विचाररत्नाकर पत्र ६६-२ । उपासकदशांग सटीक पत्र १३ -२ तथा उपासकदशांग ( मूल और टीका के गुजराती अनुबादसहित ) पत्र ४४ - २ में इसे अधिक स्पष्ट किया गया है ।
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