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भक्त राजे
की स्वामिनी बनाऊँगा ।" इसे सुनकर मदनरेखा ने उसे समझाया"युवराज की पत्नी होने से मुझे राज्यलक्ष्मी तो स्वतः प्राप्त है। छोटे भाई की पत्नी होने से मैं आपके लिए पुत्री - तुल्य हूँ । उसकी कामना कोई नहीं करता । परस्त्री के साथ रमण करने की इच्छा मात्र दुःखदायक है | अतः हे महाराज आप इस इच्छा को त्याग दें । "
राजा को लगा कि हमारा भाई ही शत्रु-रूप में हो गया है । अतः उसके जीवित रहते मेरी दाल न गलेगी । कालान्तर में मदन रेखा गर्भवती हुई और एक दिन वह युगबाहु के साथ उपवन में गयी थी तथा रात्रि में कदलीगृह में रह गयी । भाई की हत्या का अच्छा अवसर जान कर वह कदलीगृह में गया। भाई को देखते ही युगबाहु ने उसे प्रणाम किया । राजा ने उससे कहा - " इस समय रात्रि में यहाँ रहना ठीक नहीं है ।" युगबाहु वापस चलने की तैयारी कर ही रहा था कि, मणिरथ ने खड्न से उसे मार दिया । मदनरेखा "अन्याय ! अन्याय !!" चिल्लाने लगी तो राजा बोला - " प्रमादवश हाथ से खङ्ग गिर पड़ा । भय की इसमें कोई बात नहीं है । युगबाहु का पुत्र वैद्य को ले आया । उपचार किया गया पर अधिक रक्त प्रवाह के कारण थोड़ी ही देर में युगबाहु चेष्टारहित हो गया ।
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मदन रेखा मणिरथ के कुत्सित विचारों से तो परिचित थी ही । अतः रात्रि में घर से निकल पड़ी और पूर्व दिशा की ओर चली । प्रातःकाल होते-होते वह एक गहन वन में जा पहुँची। उस भयंकर वन में चलते-चलते दोपहर में एक सरोवर के तट पर पहुँची । वहाँ मुँह-हाथ धोकर फल आदि खाकर एक कदलीगृह में साकार अनशन ( मर्यादित भोजन त्याग ) करके लेटी ।
वह इतनी थकी थी कि रात आ गयी पर उसकी नींद नहीं खुली । रात्रि होने पर उसकी नींद खुली तो बड़ी सतर्कता से जगती रही ।
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