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तीर्थङ्कर महावीर चिरंजीवी चिरं धर्म द्योतयिष्यत्यसाविति ।
धुरि कृत्वा सुधर्माणमन्वज्ञासीद्गणं प्रभुः ॥ -यह चिरंजीव होकर धर्म का चिरकाल तक उद्योत करेगा। ऐसा कहते हुए प्रभु ने सुधमा गणधर को सर्व मुनियों में मुख्य करके गण की अनुज्ञा दी।
ऐसा ही उल्लेख कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में तथा तपागच्छपट्टावलि में भी है।
केवल-ज्ञान प्राप्ति के ४२-वें वर्ष में, जिस रात्रि में भगवान का मोक्षगमन हुआ, उसके दूसरे ही दिन प्रातः इन्द्रभूति गौतम को केवलज्ञान हो गया, और तब तक अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त निर्वाण प्राप्त कर चुके थे।
अतः ज्येष्ठ होने के कारण सुधर्मा स्वामी भगवान् के प्रथम पट्टधर हुए । कल्पसूत्र में पाट आता है :
समणे भगवं महावीरे कासवगुत्तेणं समणस्स णं भगवश्रो महावीरस्स कासवगुत्तस्स अज सुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्गिवेसायणसगुत्ते।
सुधर्मा स्वामी से परिपाटी चलाने का कारण बताते हुए तपागच्छ पट्टावलि की टीका में आता है :
१-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ५, श्लोक १८० पत्र ७० ---२ २-गणं च भगवान् सुधर्म स्वामिनं धुरि व्यवस्थाप्यानु जानाति
-पत्र ३४१
३-श्री वीरेण श्रीसुधर्मास्वामिनं पुरस्कृत्य गणोऽनुज्ञातः
-श्री तपागच्छपट्टावलि अनुवाद सहित, पष्ठ २ ४-तीर्थकर महावीर माग १, पृष्ठ ३६७-३६८ ५-कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, व्याख्यान ८, पत्र ४८०-४८१
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