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भक्त राजे
नाम प्रसन्नचन्द्र था। उन दोनों भाइयों को यशोमति-नामक बहन थी। उसके पति का नाम पिठर था। यशोमति को एक पुत्र था, उसका नाम गागलि था।
एक बार महावीर स्वामी विहार करते हुए पृष्ठ चम्पा आये। उनके आने का समाचार सुनकर साल और महासाल सपरिवार भगवान् की वंदना करने गये।
भगवान् ने अपनी धर्मदेशना में कहाः
"हे भव्य प्राणियों ! इस संसार में मनुष्य-भव के बिना धर्म-साधन की सामग्री मिलना अत्यन्त कठिन है। मिथ्यात्व अविरति आदि धर्म का प्रबंधक है।
महा आरंभ नरक का कारण है। यह संसार जन्म, जरा, मरण आदि अनेक दुःखों से भरा है। क्रोधादिक कषाय संसार-भ्रमण के हेतु-रूप हैं। उन कषायों के त्याग से मोक्ष-प्राप्ति होती है।”
धर्मदेशना सुनकर दोनों भाई अपने-अपने स्थान पर वापस चले गये ।
घर आने के पश्चात् साल ने अपने भाई महासाल से कहा-"हे भाई ! भगवान् की देशना सुनकर मुझे वैराग्य हो गया है। मैं दीक्षा ग्रहण करने जा रहा हूँ। यह राज्य अब तुम सँभालो।”
इसे सुनकर महासाल बोला-"भाई ! दुर्गति का कारण-रूप यह राज्य आप मुझे क्यों सौंप रहे हैं ? मुझे भी वैराग्य हो गया है। मैं भी आपके साथ दीक्षा ग्रहण करूँगा। मुझे अपने साथ रखकर दुर्गति से मेरा उद्धार करें।"
अतः उन दोनों ने अपने भांजे गागलि को राज्य सौंप कर उत्सव पूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली और भगवान् के साथ विचरते हुए उन दोनों
२-उपदेशपद सटीक गा० ७, पत्र ११६-१ ।
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