SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५७ उदक को उत्तर मूर्छित रहकर अपने लिए आसुरी और पातकी के स्थान में जन्म लेने और वहाँ से छूटने पर भी अंधे, बहरे या गूंगे होकर दुर्गति प्राप्त करते हैं। "और भी कितने ही श्रमणोपासक जिनसे पोषधवत या मरणान्तिक संलेखना जैसे कठिन व्रत नहीं पाले जा सकते, वे अपनी प्रवृत्ति के स्थान की मर्यादा घटाने के लिए सामायिक देशावकाशिव व्रत-धारण करते हैं । इस प्रकार के मर्यादा के बाहर सब जीवों की हिंसा का त्याग करते हैं और मर्यादा में त्रस-जीवों की हिंसा न करने का व्रत लेते हैं । वे मरने के बाद उस मर्यादा में जो भी त्रस-जीव होते हैं, उनमें फिर जन्म धारण करते हैं अथवा उस मर्यादा में के स्थावर-जीव होते हैं। उस मर्यादा में के त्रस-स्थावर जीव भी आयुष्य पूर्ण होने पर उस मर्यादा में त्रस-रूप जन्म लेते हैं अथवा मर्यादा में के स्थावर जीव होते हैं अथवा उस मर्यादा के बाहर के त्रस-स्तावर जीव उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार मर्यादा के बाहर के त्रस और स्थावर जीव भी जन्म लेते हैं । " इस रूप में जहाँ विभिन्न जीव अपने-अपने विभिन्न कर्मों के अनुसार विभिन्न गति को प्राप्त करते रहते हैं, वहाँ ऐसा कैसे हो सकता है कि सब जीव एक समान ही गति को प्राप्त हों ? और, विभिन्न जीव विभिन्न आयुष्य वाले होते हैं इससे वे विभिन्न समय पर मर कर विभिन्न गति प्राप्त करते हैं । इस कारण ऐसा कभी नहीं हो सकता कि, सब एक ही साथ मर कर एक समान ही गति प्राप्त करें और ऐसा अवसर आये कि जिसके कारण किसी को व्रत लेना और हिंसा करना ही न रहे।" इस प्रकार कहने के पश्चात् गौतम स्वामी ने कहा--" हे आयुष्मान उदक ! जो मनुष्य पापकर्म को त्यागने के लिए ज्ञान-दर्शन-चारित्र प्राप्त करके भी किसी दूसरे श्रमण-ब्राह्मग की झूठी निंदा करता है और वह भले ही उनको अपना मित्र मानता हो, तो भी वह अपना परलोक बिगाड़ता है।" इसके बाद पेढालपुत्र उदक गौतम स्वामी को नमस्कार आदि आदर १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy