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तीर्थकर महावीर हाथ से उनकी हिंसा होने पर उसके प्रत्याख्यान का भंग हो जाता हैं, तुम्हारा ऐसा कथन ठीक नहीं है, क्योंकि त्रसनामकर्म के उदय से जीव 'त्रस' कहलाते हैं, परन्तु जब उनका 'वस' गति का आयुष्य क्षीण हो जाता हैं और त्रसकाय की स्थिति छोड़कर वे स्थावर-काय में उत्पन्न होते हैं । तब उनमें स्थावर नामकर्म का · उदय होता है और वे स्थावरकायिक कहलाते हैं। इसी तरह स्थावरकाय का आयुष्य पूर्ण कर जब वे त्रसकाय में उत्पन्न होते हैं, तब वे त्रस भी कहलाते हैं, प्राण भी कहलाते हैं। उनका शरीर बड़ा होता है और आयुष्य भी लम्बी होती है।'
उदक-“हे आयुष्मान गौतम ? ऐसा भी कोई समय आ ही सकता है जब सब के सब त्रस-जीव स्थावर रूप ही उत्पन्न हों और त्रस-जीवों की हिंसा न करने की इच्छा वाले श्रमणोपासक को ऐसा नियम लेने और हिंसा करने को ही न रहे !”
गौतम स्वामी-"नहीं। हमारे मत के अनुसार ऐसा कभी नहीं हो सकता; क्योंकि सब जीवों की मति, गति और कृति ऐसी ही एक साथ हो जावे कि वे सब स्थावर-रूप हों उत्पन्न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। इसका कारण यह है कि, प्रत्येक समय भिन्न-भिन्न शक्ति और पुरुषार्थ वाले जीव अपने-अपने लिए भिन्न-भिन्न गति तैयार करते हैं, कि जैसे कितने ही श्रमणोपासक प्रव्रज्या लेने की शक्ति न होने से पौषध, अणुव्रत आदि नियमों से अपने लिए शुभ ऐसी देवगति अथवा सुन्दर कुलवाली मनुष्यगति तैयार करते हैं और कितने ही बड़ी इच्छा प्रवृत्ति और परिग्रह से युक्त अधार्मिक मनुष्य अपने लिए नरकादि गति तैयार करते हैं ।
" दूसरे अनेक अल्प इच्छा, प्रवृत्ति और परिग्रह से मुक्त धार्मिक मनुष्य देवगति अथवा मनुष्यगति तैयार करते हैं ; दूसरे अनेक अरण्य में, आश्रमों में, गाँव के बाहर रहने वाले तथा गुप्त क्रियादि साधन करने वाले तामस आदि संयम और विरति को स्वीकार न करके कर्मयोगों में आसक्त और
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