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तीर्थङ्कर महावीर मुख्य गौण लक्ष्य व्यंगार्थ भेदात् मुख्य गौण लक्षक व्यञ्जकाः शब्दाः'
अर्थ लेने में क्या-क्या ध्यान में रखना चाहिए, इस सम्बन्ध में कहा है
शक्तिग्रहं व्याकरणोपमा न कोशाप्त वाक्याद् व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद् विवृतेर्वदंति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा ॥
बिना इन सभी दृष्टियों को ध्यान में रखे जो भी अर्थ करने का प्रयास होता है, वह वस्तुतः अर्थ नहीं अनर्थ होता है । एक श्लोक है
देवराजो मया दृष्टो वारिवारण मंस्तके ।
भक्षयित्वार्कपर्णानि विष पीत्वा क्षयं गतः॥ यहाँ यदि 'विष' का अर्थ 'जहर' और 'क्षयं' का अर्थ 'नष्ट होना' किया जाये तो वस्तुतः अर्थ का अनर्थ हो जायेगा ।
१-काव्यानुशासन सटीक [ महावीर विद्यालय, बम्बई ] १-१५ पृष्ठ ४२ । ऐसा ही उल्लेख साहित्य-दर्पण में भी आता है
अर्थो वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यङ्ग्यश्चेति विधायतः वाच्योर्थोऽभिधवा वोध्योलच्योलक्षणयामतः ॥ व्यङ्ग्योव्यजनयातास्तु तिस्त्रः शब्दस्य शक्तय । इति साहित्य दर्पणः
शब्दार्थ-चिंतामणि, भाग १, पृष्ठ १७२ २-हे देवरः ! मया जः मेषः वारिवारण ३-सेतुः तस्य मस्तके उदरिभागे दृष्टः ४–अर्को-वृक्ष विशेषः तस्य पर्णानि-पत्राणि ५-जलम् ६-स्थानम्-सुभाषित सुधारत्न भाण्डागार, पृष्ठ ५३५
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