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शब्द और अर्थ भिन्न हैं
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प्राचीन भाषाशास्त्री अर्थ को प्रधान और शब्द को गौण मानते हैं ।' वाक्यपदीय में आता है :
लोकेऽर्थरूपतां शब्दः प्रतिपन्न प्रवर्तते ' इसकी टीका करते हुए पुण्यराज लिखा है
अथ रूपतां प्रतिपन्नोऽर्थेन सहैकत्वमिव प्राप्तः शब्दः प्रवर्तते । श्रयं गौरित्यादि । तत्रार्थं एव बाह्यतया प्रधानमवसीयते शब्द का अर्थ भी सर्वत्र समान नहीं होता । वैशेषिक दर्शन में आता हैसामायिकः शब्दादर्थः प्रत्ययः
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इस पर उदाहरण देते हुए 'शब्द और अर्थ " में लिखा है
संस्कृत और हिन्दी में 'राग' का अर्थ 'प्रेम' है; किन्तु बंगला और मराठी में 'क्रोध' के अर्थ में यह प्रयुक्त होता है । इस प्रकार 'शब्द' से अर्थ का बोध सामयिक मानना चाहिए। ऐसा प्राचीन उदाहरण भी है
'शव' धातु कम्बोज देश में 'जाना' अर्थ में प्रयुक्त होता है; किन्तु आर्य 'विकार' के अर्थ में 'शव' का प्रयोग करते हैं । अर्थ किस रूप में लेना है, इस दृष्टि से स्वयं शब्द के भेद हो जाते हैं । हेमचन्द्राचार्य ने काव्यानुशासन ( सटीक ) में लिखा है -
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१ - र्थी हि प्रधानं तद् गुणभूतः शब्दः
- निरुक्तम् आनंदाश्रम मुद्रणालय, पूना १९२१ २- वाक्यपदीयम्- २ - २३२ ( ब्रजविलास ऐंड कम्पनी ) १८८७ ई० ३ - वाक्यपदीय
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४--७-२-२०
५-डा० शिवनाथ-लिखित 'शब्द और अर्थ' ना० प्र० प० ६३, ३-४ पृष्ठ ३१३ ६ - एतमिंश्चाति महती शब्दस्य प्रयोग विषय ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियत विषया दृष्यंते-तद्यशा शवतिर्गं ति कर्मा कव्योजष्वेव भाषितो भवति विकार एवमार्या भाषन्ते शव इव
-पी० ० एस० सुब्रह्मण्य शास्त्री - लेक्यर्स आन पंतजलीज महाभाष्य, वाल्यूम १,
पृष्ठ ६५
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