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तीर्थंकर महावीर
लिखा । इससे स्पष्ट है कि यहाँ भी उन्होंने अपनी टाणांग की टीका की पुष्टि ही की है ।
'शब्द' और 'अर्थ' भिन्न हैं
'जो सुना जाता है, वही अर्थ है' ऐसी धारणा वालों को मैं बता देना 'चाहता हूँ कि 'अर्थ' 'शब्द' से भिन्न है । 'शब्द' स्वयं अर्थ नहीं है । "अर्थ' की टीका करते हुए नेमिचन्द्र सूरि ने लिखा है
अर्थञ्च तस्यैवाभिधेयं
- उत्तराध्ययन सटीक, अ० १, गा० २३, 'राजेन्द्राभिधान' में 'अर्थ' की टीका इस प्रकार की ऋ - गतौ, अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः
- अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृष्ठ ५०६ इसी प्रकार की टीका ठाणांग में भी है :अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्य ते याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थः व्याख्याने -- 'जो सुत्तभिपाओ, सो अत्थो अज्जए जम्हति -ठाणांग सूत्र सटीक, पूर्वार्द्ध, ठा० २, उ० १, सू० ७१ पत्र ५१-१
वा
इन टीकाओं से स्पष्ट है कि, जो सुना जाता है, वही अर्थ कदापि नहीं होता है । और, बिना अर्थ के सुने हुए का कुछ भी प्रयोजन नहीं है । वैपेशिकों ने यह प्रश्न उठाया है
" शब्द मुख में और अर्थ अन्यत्र होता है ?' जैसे ग्रंथ कहने से उसका रूप गुण हमारी हृद्रय बुद्धि में आता है और तब हम यथावश्यकता यथास्थान उसकी प्राप्ति उसके भौतिक रूप में करते हैं । इसीलिए
पत्र ९-१ गयी है
१ - मुखे हि शब्दमुपलभामहे भूयावर्थं
मीमांसा दर्शन, वाल्यूम १, दि एशियाटिक सोसाइटी व बंगाल,
-सन् १८७३
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