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श्रूयमाणमेवार्थ के चिन्मन्यन्ते चुके थे ।' और, वहाँ उन्होंने पूर्ण रूप से उक्त प्रसंग का स्पष्टीकरण कर दिया था। हमने उसका पाठ पृष्ठ १३६ पर दे दिया है ।
तथाकथित 'जैन संस्कृति संशोधक मंडल, वाराणसी' द्वारा प्रकाशित ( पत्रिका संख्या १४) 'निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय' नामक पुस्तिका में उसके लेखक ने लिखा है__". • 'जब कि चूर्णिकार , आचार्य हरिभद्र और आचार्य अभयदेव ने अमुक वाक्यों का मांस-मत्स्यादिपरक अर्थ भी अपनी आगमिक व्याख्याओं में लिखा है।"
जैन-संस्कृति के इन संशोधकों को मैं क्या कहूँ, जो जैन होकर भी जैन-धर्म पर कीचड़ उछालने को उद्यत हैं; जब कि, अन्य धर्मावलम्बी धर्म-ग्रन्थों ने भी जैनियों की अहिंसा-प्रियता स्वीकार किया है।
और, यदि इन संशोधकों ने दोनों टीकाएँ और उनके काल पर विचार किया होता तो वे कदापि न तो स्वयं भ्रम के शिकार होते और न औरों को भ्रम में डालने का दुष्प्रयास करते ।
श्रयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते हमने अभी 'श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते (कुछ लोग मानते हैं कि जो सुना जाता है, वही अर्थ है ) का उल्लेख किया । इसी वाक्यांश को लेकर लोग नाना प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं। ___यहाँ जिस रूप में टीका में यह वाक्यांश आया है । उससे भी अभयदेव सूरि का भाव स्पष्ट है । पहले 'श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते' कहकर उन्होंने दो चार शब्द उपेक्षा से लिख दिये और फिर दूसरे मत को सविस्तार
१-जैन-ग्रन्थावलि, पृष्ठ ३
२-निर्गन्थ सम्प्रदाय, पृष्ठ १३ । यह लेख सुखलाल के लेखों के संग्रह 'दर्शन और चिंतन' (हिन्दी) में पृष्ठ ६१ पर उद्धृत है।
३-भगवतीसूत्र सटीक, पत्र १२७०
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