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युक्तिप्रबोध नाटक का स्पष्टीकरण १४५
युक्तिप्रबोध-नाटक का स्पष्टीकरण अर्थ सप्रसंग और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लेना चाहिए। इसका बड़ा तर्कपूर्ण तथा बुद्धिगम्य स्पष्टीकरण मेघविजय उपाध्याय ने 'युक्तिप्रबोध' नाटक में किया है :
साधोसिं ग्रहणं तदपि मुग्धप्रतारण मात्रं श्रीदशवैकालिके-'अमजमंसासियऽमच्छरीया" इति सूत्रकृदङ्गे-'अमज्जमंसासिणों" इत्यागमे मुनिस्वरूपे तन्निषेधभणनात्, यत्तुं कुत्रचिच्छब्देन मांसाहारो दृष्यते, तत्र दशवैकालिके 'महुघयं व भुजिज्जा संजएँ' इत्यादौ 'मधु' शब्देन खण्डिकादिकमिति व्याख्यानात् सर्वत्र अर्थान्तरमेव प्रतिपादितं, दृश्यते प्राचीना नूचानः न चार्थान्तरकरणमसङ्गतं, रत्नमाला ग्रंन्थे ज्योतिषिकैरपि अर्थान्तरकरणात् तथाहिअष्टम्यादिषु नाद्यात् ऊर्ध्वगतीच्छुः कदाचिदपि विद्वान् । शीर्ष कपाला न्त्राणि नख चर्म तिलास्तथा क्रमशः ॥१॥
अत्र शीर्ष तुम्बकं, अन्त्राणि महत्यो मुद्रिकाः नखा चल्लाश्चर्माणि सेल्लर कानि इत्यर्थः समर्थ्यते।
आगमेऽपि प्रज्ञापनायाम् ‘एगट्टिया य बहुबीयगा य" इत्यत्र एकमस्थि बीजमित्यर्थः तथा 'वत्थल पोरग मजार पोई बिल्ली य पालक्का, ॥४१॥ दगपिप्पली य दवी मच्छिय ( सोत्तिय ) १-दशवैका लिक हारिभद्रीय टीका सहित, चू० २, गा० ७, पत्र २८०-१ २-सूत्रकृतांग [ बाबूवाला] २-२७२ पृष्ठ ७५६ ३-दशवैकालिक सटीक अ० ५, उ० १, गाथा ६७ पत्र १८०-२
४--'मधु' शब्द पर हमने 'तीर्थकर महावीर', भाग १, पृष्ठ १६६ पर विस्तार से विचार किया है।
५-प्रज्ञापनासूत्र सटीक, गा० १२, पत्र ३१-१ ६-प्रज्ञापनासूत्र सटीक गा ० ३७, पत्र ३३-१
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