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हमने पहले अंगों के पदों की जो संख्या दी है, उस रूप में आज हमारा आगम-साहित्य हमें उपलब्ध नहीं है । उसका बहुतसा भाग आज विलुप्त हो गया है। मालवणिया ने जैन-संस्कृतिसंशोधन-मंडल की पत्रिका १७ ( जैन-आगम ) में जैनों को इसका दोषी ठहराया है और ब्राह्मणों की प्रशंसा करते हुए कहा है कि, ब्राह्मणों ने वेदों को अक्षुण्ण बनाये रखा । पर, मालवणिया की यह भूल है । काल सभी वस्तुओं पर पर्दा डाला करता हैयह उसका स्वभाव है। वर्तमान शासन के जैन-आगमों ने लगभग ढाई हजार वर्ष का समय देखा है। उसमें अधिकांश समय वह अलिखित रहा । फिर उसमें से कुछ अंश विलुप्त हो जाना, क्या आश्चर्य की बात है। जिन ब्राह्मणों की प्रशंसा मालवणिया करते हैं, उन ब्राह्मणों का भी साहित्य अक्षुण्ण नहीं है। स्वयं वेदों को लीजिए-ऋग्वेद की २१ शाखाएं थीं, अब केवल १२ शाखाएं मिलती हैं। यह भी वस्तुतः काल का ही प्रभाव है। काल के प्रभाव की सर्वथा उपेक्षा करके इस प्रकार दोषारोपण करना मालवणिया की उद्धृत-वृत्ति है। मालवणियाँ ने उसी जैन-आगम ( पृष्ट २५ ) में लिखा है
"कुछ में कल्पित कथाएं देकर उपदेश दिया गया है जैसे ज्ञाताधर्मकथा आदि ।" ज्ञाता को यदि कल्पित माना जाये तो श्रेणिक, अभयकुमार आदि सभी कल्पित हो जायेंगे। ज्ञाता की कथावस्तु की ओर डा० जगदीशचन्द्र जैन ने भी संकेत किया है। उन्होंने 'प्राकृत साहित्य का इतिहास' पृष्ठ ७५ में लिखा है
..."इसकी वर्णन-शैली एक विशिष्ट प्रकार भी है। विभिन्न
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