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तीर्थङ्कर महावीर
तस्सणं कोणिस्स रण्णो एक्के पुरिसे विउलकयवित्तिए भगवओो पचित्तिवाउए भगवओ तद्देवसि पविति णिवेद तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्णभतिभत्तवेश्रणा भगवो पवित्तिवाडश्रा भगवओ तद्देवसियं पविति णिवेदेति ॥ -औपपातिक सूत्र, सटीक, सूत्र ८ पत्र २४-२५
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इसकी टीका इस प्रकार की गयी है
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'तस्स गं' मित्यादौ 'विउलकयवित्तिए' ति विहित प्रभूतजीविक इत्यर्थः, वृत्ति प्रमाणं चेदम्-श्रद्ध त्रयोदशरजतसहस्राणि यदाह'मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सयसहस्सा' 'पवित्ति वाउए' त्ति प्रवृत्ति व्यापृतो वार्ता व्यापारवान् वार्तानिवेदक इत्यर्थः । ' तद्देवसिनं' ति दिवसे भवा दैवसिकी सा चासौ विवक्षिता - प्रमुत्र नागरादावागतो विहरति भगवानित्यादिरूपा, दैवसिकी चेति तद् दैवसिकी, अतस्तां निवेदयति । 'तस्स ण' मित्यादि अत्र 'दिरणभतिभत्तवेयण' ति दत्तं भृतिभक्त रूपं वेतनं — मूल्यं येषां ते तथा, तत्रभृतिः कार्षापणादिका भक्त च भोजनमिति ।
उस कोणिक राजा ने एक पुरुष की विस्तीर्ण वृत्ति - आजीविका भोजनादि का भाग वृत्ति — निकाली थी, वह पुरुष भगवंत महावीरस्वामी की सदैव ( रोज-रोज ) की वार्ता- समाचार कहने वाला था । उस पुरुष के हाथ नीचे और भी बहुत-से पुरुष थे । उनको इस पुरुष ने बहुवृत्ति भोजनादिक का विभाग दिया था, जिससे वे जहाँ भगवंत विचरते रहते
(पृष्ठ ११ पी पाद टिप्पण का शेशांष )
'वरणओ' जैन- साहित्य में मिलता है, वहाँ यही वर्णक जोड़ा जाता है । इस वर्णक को ध्यान में रखकर उसका अर्थ 'उद्यान' आदि किया ही नहीं जा सकता । अनजान श्रावकों को भ्रम में डालने के लिए फिर भी कुछ लोग ऐसी अनधिकार चेष्टा करते हैं ।
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