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तीर्थकर महावीर
का नाम अणुधरी था। वे दोनों श्रावक थे। उन्हें एक पुत्र था। उसका नाम जिनदत्त था । एक बार जिनदत्त बीमार पड़ा । वैद्य ने उससे कहा"मांस खाओ तो अच्छे हो जाओगे।" इस पर जिनदत्त ने उत्तर दिया
वरं प्रविष्ट ज्वलितं हुताशनं,
न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः परिशुद्ध कर्मणा,
न शोल वृत्तस्खलितस्य जीवितम् ॥ -जलती आग में प्रवेश करना मुझे स्वीकार है; पर चिरसंचित व्रत भग्न करना मुझे स्वीकार नहीं है। परिशुद्ध कर्म करते हुए मर जाना मुझे स्वीकार्य है, पर शील व्रत का स्खलन करके जीना स्वीकार नहीं है ।
इस प्रकार जिनदत्त ने मांसाहार पूर्णतः अस्वीकार कर दिया । बाद में जिनदत्त को ज्ञान उत्पन्न हुआ और वह सिद्ध हो गया।'
जैन अहिंसा-व्रत में खरे थे __ आर्द्रककुमार की जो वार्ता बौद्धों' और हस्तितापसों से हुई, उससे भी स्पष्ट है कि जैन-लोग अहिंसा-व्रत में कितने खरे थे ।
१-आवश्यकचूणि उत्तगद्ध, पत्र २०२ आवश्यककथा [ राजेन्द्राभिधान, भाग १, पृष्ठ ५०३ 'अत्तदोसोवसंहार' शब्द देखिये ] तथा आवश्यक की हारिभद्रीय टीका पत्र ७१४-१ में भी यह कथा आती है। हरिभद्र जब इस प्रकार की टीका करते हैं तो भला वह मांसपरक अर्थ कहीं अन्यत्र क्यों करने लगे ? सुखलाल ने 'जैन-संस्कृति-मंडल' को पत्रिका संख्या १४ के पष्ठ १३ पर हरिभद्र पर जो आरोप लगाया है, वह मनगढन्त तथा निराधार है। आवश्यकनियुक्ति दीपिका, भाग २, पत्र ११६-१ की १३०३-री गाथा है
वारवइ अरहमित्ते अणुद्धरी चेव तहय जिणदेवो ।
रोगस्स य उप्पत्ती पडिसेहो अत्तसंहारो ॥ २-सूत्रकृतांग सटीक (गौड़ी जो, पम्बई ) भाग २, पत्र १५१-१ ( देखिए पृष्ठ ३-वही, पत्र १५६-२-(देखिए पष्ठ ६० )।
५७-५८)।
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