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२७-वाँ वर्षावास गोशाला - काण्ड
भगवान् महावीर और गोशाला' से भगवान् की छद्मावस्था के दूसरे वर्षावास में नालंदा में भेंट हुई थी । हम उसका वर्णन प्रथम भाग में ( पृष्ठ १८९ ) कर चुके हैं। वहीं ( पृष्ठ १९० १९१ ) पादटिप्पणियों में हमने उसका परिचय और पूर्व जीवन भी दे दिया है । गोशाला भगवान् की छद्मावस्था के १० - वें वर्षावास तक भगवान् के साथ रहा । भगवान् के साथ ही रहकर उसे तेजोलेश्या का ज्ञान हुआ था और भगवान् ने हो उसे तेजोलेश्या - प्राप्ति की विधि बतायी थी । हम इसका भी उल्लेख प्रथम भाग में ही (पृष्ठ २१८ ) कर चुके हैं । उसके बाद गोशाला स्वतंत्र रूप से तेजोलेश्या प्राप्ति के लिए तप करने लगा । भगवान् को छद्मावस्था में २-रे से १० वें वर्षावास के बीच में गोशाला केवल एक बार भगवाद् की छद्मावस्था के ६-ठें वर्षावास में कूपियसन्निवेश से पृथक् हुआ था ( देखिये 'तीर्थंकर महावीर', भाग १ पृष्ठ २०४ ) और ६ मास बाद शालीशीर्ष में पुनः भगवान् से आ मिला था ( देखिये 'तीर्थंकर महावीर', भाग १, पृष्ठ २०६ ) ।
गोशाला ने तेजोलेश्या - प्राप्ति के लिए श्रावस्ती में एक कुम्भकार की शाला ( आवश्यकचूर्णि, पूर्वार्द्ध, पत्र २९९ ) में तप किया था । उस तप
१ - गोशाला के पूर्वभव का उल्लेख महानिशीथ अ० ६ में आता है - देखिये 'स्टडीन जेन महानिसीह' कैपिटेल ६-८ [ जर्मन भाषा में टिप्पणि सहित ] फ्रैंक रिचार्ड हैं और वाल्थर शुक्रिंग- सम्पादित, गाथा १५३-१६८ पृष्ठ २४.२६,
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