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केशी- गौतम संवाद
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चक्रजड़ हैं; किन्तु मध्यम तीर्थकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ होते हैं। इस कारण से धर्म के दो भेद किये गये । प्रथम तीर्थकर के मुनियों का कल्प दुर्विशोध्य और चरम तीर्थकर के मुनियों का कप ( आचार ) दुरनुपालक होता है; पर मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों का कल्प सुविशोध्य और सुपालक है ।"
यह सुनकर केशीकुमार ने कहा - "आपने इस सम्बंध में मेरी शंका मिय दी । अब आप से एक और प्रश्न पूछता हूँ । वर्द्धमान स्वामी ने अचेलक-धर्म का उपदेश दिया और महामुनि पार्श्वनाथ ने सचेलक-धर्म का प्रतिपादन किया । हे गौतम! एक कार्य में प्रवृत्त हुओं में विशेषता क्या है ? इनमें हेतु क्या है ? हे मेधाविन् ! लिंग-प में दो भेद हो जाने पर क्या आप के मन में विप्रत्यय ( संशय ) उत्पन्न नहीं होता ?"
गौतम स्वामी बोले – “लोक मैं प्रत्यय के लिए, वर्षादिकाल में संयम की रक्षा के लिए, संयम - यात्रा के निर्वाह के लिए, ज्ञानादि ग्रहण के लिए
१ - वीर तीर्थं साधूनां च धर्मस्य पालने दुष्करं वक्रजड़त्वात - वही, पत्र
२ - श्रजितादि जिन तीर्थं साधूनां तु धर्मस्य अवबोधः पालनं च द्वयं श्रपि सुकरं ऋजु प्राज्ञत्वात् - वही, पत्र 8
३ - श्वेतमानोपेत वस्त्रधारित्वेन अचेलकत्वमपि - वही, पत्र ३
'अ' शब्द का एक अर्थ 'अल्प' भी होता है । ( देखिये श्राप्टेज संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी, भाग १, पृष्ट १ । वहाँ उसका उदाहरण भी दिया है जैसे अनुदरा । ) इसी अर्थ में 'अचेल : ' में 'अ' शब्द का प्रयोग हुआ है । आचारांग की टीका में आता है 'अचेल : ' ' अल्पचेलः ( पत्र २२१ - २ ) ऐसा ही अर्थ उत्तराध्ययन में भी किया है । स्वादिना चेलानि वस्त्राण्यस्येत्यवम चेलकः ।
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लघुत्व जीणं
( उत्तराध्ययन वृहत्वृत्ति, पत्र ३५६ - १ ) ४ - श्रजितादिद्वाविंशति जिनतीर्थ साधूनां ऋजु प्रज्ञानां बहुमूल्य विविधवर्ण वस्त्र परिभोगानु ज्ञासद्भावेन सचेलकत्वमेव - कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, पत्र ३
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