SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ तीर्थङ्कर महावीर अथवा 'यह साधु है', ऐसी पहचान के लिए लोक में लिंग का प्रयोजन है । हे भगवन् ! वस्तुतः दोनों ही तीर्थकरों की प्रतिज्ञा तो यही है कि निश्चय मैं मोक्ष के सद्भूत साधन तो ज्ञान, दर्शन और चरित्र रूप ही हैं ।" फिर केशीकुमार ने पूछा - "हे गौतम ! तू अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य में खड़ा है, वे शत्रु तुम्हें जीतने को तेरे सम्मुख आ रहे हैं । तूने किस प्रकार उन शत्रुओं को जीता है ?" गौतम स्वामी - "एक के जीतने पर पाँच जोते गये। पाँच के जीतने पर दस जीते गये तथा दस प्रकार के शत्रुओं को जीतकर मैंने सभी प्रकार के शत्रुओं को जीत लिया है ।" केश कुमार - "वे शत्रु कौन कहे गये हैं ?" गौतम स्वामी - " हे महामुने ! वशीभूत न किया हुआ एक आत्मा शत्रुरूप है एवं कषाय और इन्द्रियाएँ भी शत्रुरूप हैं । उनको जीतकर मैं विचरता हूँ ।" केशीकुमार - "हे मुने ! लोक में बहुत-से जीव पाश से बँधे हुए देखे जाते हैं। परन्तु तुम कैसे पाश से मुक्त और लघुभूत होकर विचरते देखे जाते हो ?” गौतमस्वामी - "हे मुने ! मैं उन पाशों को सर्वप्रकार से छेदन कर तथा उपाय से विनष्ट कर मुक्तपाय और लघुभूत होकर विचरता हूँ ।" केशीकुमार - "वह पाश कौन है ?" गौतम स्वामी - "हे भगवन् ! रागद्वेषादि' और तीव्र स्नेह-रूप - 'आदि' शब्द से मोहपरिग्रह लेना चाहिए - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका, पत्र २६६ - १ २– – 'नेह' त्ति स्नेहाः पुत्रादि सम्बन्धाः - उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र की टीका पत्र २६६-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy