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________________ १६४ केशी-गौतम संवाद पाश बड़े भयंकर हैं। इनको यथान्याय छेदन करके मैं यथाक्रम विचरता हूँ।" केशीकुमार- "हे गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न हुई लता उसी स्थान पर ठहरती है, जिसका फल विष के समान ( परिणाम दारुण ) है। आपने उस लता को किस प्रकार उत्पाटित किया ?" गौतम स्वामी-"मैंने उस लता को सर्व प्रकार से छेदन तथा खंडखंड करके मूल सहित उखाड़ कर फेंक दिया है। अतः मैं न्यायपूर्वक विचरता हूँ। और, विषभक्षण (विष-रूप फलों के भक्षण) से मुक्त हो गया हूँ।" केशीकुमार-"वह लता कौन सी है ?' गौतम स्वामी- "हे महामुने ! संसार में तृष्णा-रूप जो लता है, वह बड़ी भयंकर है और भयंकर फल उदय कराने वाली लता है। उसको न्यायपूर्वक उच्छेदन करके मैं विचरता हूँ।" केशीकुमार-''शरीर में स्थित घोर तथा प्रचंड अग्नि, जो प्रज्वलित हो रही है और जो शरीर को भस्म करने वाली है, उसको आपने कैसे शान्त किया ? उसको आपने कैसे बुझाया है ?" __ गौतम स्वामी-"महामेघ के प्रसूत से उत्तम और पवित्र जल का ग्रहण करके मैं उन अग्नियों को सींचता रहता हूँ। अतः सिंचित की गयी अग्नियाँ मुझे नहीं जलाती । केशी कुमार-हे गौतम ! वे अग्नियाँ कौन-सी कही गयी हैं ?" गौतम स्वामी-“हे मुने ! कषाय अग्नियाँ है । श्रुत, शील और तपरूप जल कहा जाता है तथा श्रुत-रूप जलधारा से ताडित किये जाने पर भेदन को प्राप्त हुई वे अग्नियाँ मुझे नहीं जाती।" केशी कुमार-~"हे गौतम ! यह साहसिक और भीम दुष्ट घोड़ा चारों ओर भाग रहा है। उस पर चढ़े हुए आप उसके द्वारा कैसे उन्मार्ग में नहीं ले जाये गये ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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