________________
२००
तीर्थङ्कर महावीर गौतम स्वामी-- "हे मुने ! भागते हुए दुष्ट अश्व को पकड़ कर मैं अत-रूप रस्सी से बाँध कर रखता हूँ। इसलिए मेरा अश्व उन मार्गों में नहीं जाता; किन्तु सन्मार्ग को ग्रहण करता है।"
केशी कुमार"हे गौतम ! आप अश्व किसको कहते हैं ?"
गौतम स्वामी-" हे मुने ! मन ही साहसी और रौद्र दुष्टाश्व है। वहीं चारों ओर भागता है। मैं कंथक अश्व की तरह उसको धर्म-शिक्षा के द्वारा निग्रह करता हूँ।
केशी कुमार-हे गौतम ! संसार में ऐसे बहुत-से कुमार्ग हैं, जिन पर चलने से जीव सन्मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं, परन्तु आप सन्मार्ग में चलते हुए उससे भ्रष्ट क्यों नहीं होते ?”
गौतम स्वामी" हे महामुने ! सन्मार्ग से जो जाते हैं तथा जो उन्मार्ग में प्रस्थान कर रहे हैं, उन सबको मैं जानता हूँ । अतः मैं सन्मार्ग से च्युत नहीं होता।
केशीकुमार--- "हे गौतम ! वह सन्मार्ग और कुमार्ग कौन-सा है ?
गौतम स्वामी-“कुप्रवचन के मानने वाले पाखंडी लोग सभी उन्मार्ग में प्रस्थित हैं। सन्मार्ग तो जिनभाषित है। और, यह मार्ग निश्चय रूप में उत्तम है।
केशीकुमार-- "हे मुने ? महान् उदक के वेग में बहते हुए प्राणियों को शरणागति और प्रतिष्ठारूप द्वीप आप किसको कहते हैं ।
गौतम स्वामी-"एक महाद्वीप है। वह बड़े विस्तार वाला है। जल के महान् वेग की वहाँ पर गति नहीं है।
केशीकुमार—'हे गौतम ? वह महाद्वीप कौन-सा कहा गया है ?
गौतम स्वामी--"जरा-मरण के वेग से डूबते हुए प्राणियों के लिए धर्मद्वीप प्रतिष्ठा रूप है और उसमें जाना उत्तम शरणरूप है।"
केशीकुमार--- "हे गौतम ? महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org