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________________ ( ४५ ) को भगवान् की देशनाओं के निकट पहुँचने के निमित्त मैंने भगवान् के वचनामृत की १०८ सूक्तियाँ अन्त में दे दी हैं । हमारे पास यद्यपि पुस्तकों का संग्रह था, फिर भी वह संग्रह ही अलम् सिद्ध न हो सका । मुझे पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती । इस कार्य में जैन साहित्य विकास मंडल के पुस्तकालय ने मेरी सहायता की। पर, इस बीच मुझे एक कटु अनुभव यह हुआ कि, सरकारी अथवा सार्वजनिक पुस्तकालयों से ग्रंथ प्राप्त करना तो सहज है, पर जैन - भंडारों से ( जो जैनों में धर्मप्रचार की दृष्टि से ही स्थापित हुए हैं । ) ग्रंथ प्राप्त करना अपेक्षाकृत दुष्कर है । अपने साहित्य के प्रचार के लिए जैनों को भी अब हिन्दू, बौद्ध अथवा ईसाई धर्मावलंबियों से शिक्षा लेनी चाहिए और अपने साहित्य की ओर आकृष्ट करने के लिए अधिक से अधिक सुविधा जैन और अजैन विद्वानों को उपलब्ध करानी चाहिए । पुस्तकालय - संरक्षण- शास्त्र में अब बड़ी उन्नति हो गयी है फोटोस्टैट और माइक्रोफिल्मिंग की व्यवस्था आज सम्भव है। जैन समाज में इतने कोट्याधिपति और लक्ष्याधिपति हैं । जैन संघ के पास ज्ञानखाताओं में प्रचुर साधन हैं । ऐसी स्थिति में भी जब पुस्तकों को देखने तक की सुविधा नहीं मिलती तो दुःख होता है | विद्या दान सबसे बड़ा दान है । उसका फल कभी-न-कभी किसी न किसी रूप में अवश्य होता है । हमारे गुरु महाराज परम पूज्य जगत्प्रसिद्ध शास्त्र विशारद स्वर्गीय विजय धर्म सूरीश्वर जी ने विदेशी विद्वानों को किस उदारता से ग्रन्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001855
Book TitleTirthankar Mahavira Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayendrasuri
PublisherKashinath Sarak Mumbai
Publication Year1962
Total Pages782
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Story
File Size10 MB
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